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उत्तराध्ययनसूत्र
चित्र-सम्भूतीयसुखाभासता, अशरणता तथा नश्वरता समझाई। समस्त सांसारिक रिश्ते-नातों को झूठे, असहायक और अशरण्य बताया। ब्रह्मदत्त चक्री ने उस हाथी की तरह अपनी असमर्थता प्रकट की, जो दलदल में फंसा हुआ है, किनारे का स्थल देख रहा है, किन्तु वहाँ से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकता। श्रमणधर्म को जानता हुआ भी कामभोगों में गाढ आसक्त ब्रह्मदत्त उसका अनुष्ठान न कर सका। मुनि वहाँ से चले जाते हैं और संयमसाधना करते हुए अन्त में सर्वोत्तम सिद्धि गति (मुक्ति) को
प्राप्त करते हैं । ब्रह्मदत्त अशुभ कर्मों के कारण सर्वाधिक अशुभ सप्तम नरक में जाते हैं। * चित्र और सम्भूत दोनों की ओर से पूर्वभव में संयम आराधना और विराधना का फल बता कर साधु
साध्वीगण के लिए प्रस्तुत अध्ययन एक सुन्दर प्रेरणा दे जाता है। चित्र मुनि और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती दोनों अपनी-अपनी त्याग और भोग की दिशा में एक दूसरे को खींचने के लिए प्रयत्नशील हैं, किन्तु कामभोगों से सर्वथा विरक्त, सांसारिक सुखों के स्वरूपज्ञ चित्रमुनि अपने संयम में दृढ रहे,
जबकि ब्रह्मदत्त गाढ चारित्रमोहनीयकर्मवश त्याग-संयम की ओर एक इंच भी न बढ़ा। * बौद्ध ग्रन्थों में भी इसी से मिलता जुलता वर्णन मिलता है।
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१. मिलाइए - चित्रसंभूतजातक , संख्या ४९८