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तेरहवाँ अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय
२०९ __ [३५] अभिलषणीय शब्दादि कामों में विरक्त, उग्रचारित्री एवं तपस्वी महर्षि चित्र भी अनुत्तर संयम का पालन करके अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) सिद्धिगति को प्राप्त हुए।
—ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन—वयणं अकाउं : भावार्थ-तपस्वी साधु चित्र मुनि के हितोपदेशदर्शक वचन का पालन वज्रतन्दुल की तरह गुरुकर्मा होने के कारण पंचाल-राजा नहीं कर सका। ___अणुत्तरे, अणुत्तरं : विभिन्न प्रसंगों में विभिन्न अर्थ—प्रस्तुत अन्तिम दो गाथाओं में 'अनुत्तर' शब्द का चार बार प्रयोग हुआ है। प्रसंगवश इसके विभिन्न अर्थ होते हैं। चौतीसवीं गाथा में (१) प्रथम अनुत्तर शब्द कामभोगों का विशेषण है, उसका अर्थ है-सर्वोत्तम। (२) द्वितीय अनुत्तर नरक का विशेषण है, जिसका अर्थ है–समस्त नरकों से स्थिति, दुःख आदि में ज्येष्ठ, सर्वोत्कृष्ट दु:खमय अप्रतिष्ठान नामक सप्तम नरक। (३) पैंतीसवीं गाथा में प्रथम अनुत्तर शब्द संयम का विशेषण है, अर्थ है-सर्वोपरि संयम। (४) द्वितीय अनुत्तर सिद्धिगति का विशेषण है, जिसका अर्थ है-सर्वलोकाकाश के ऊपरी भाग में रही हुई, अति प्रधान मुक्ति सिद्धिगति।
।। तेरहवाँ अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय समाप्त।।
בבם
१. बृहद्वृत्ति,पत्र ३९२ २. वही, पत्र ३९२-३९३