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उत्तराध्ययनसूत्र [४] इधर उस केसर उद्यान में एक तपोधन स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न थे। वे धर्मध्यान में एकतान हो रहे थे।
५. अप्फोवमण्डवम्मि झायई झवियासवे।
तस्सागए मिए पासं वहेई से नराहिवे॥ [५] आश्रव का क्षय करने वाले मुनि अप्फोव-(लता) मण्डप में ध्यान कर रहे थे। उनके समीप आए हुए मृगों को उस नरेश ने (बाणों से) बींध दिया।
विवेचन–अणगारे तवोधणे : आशय-यहाँ तपोधन अनगार का नाम नियुक्तिकार ने 'गद्दभालि' (गर्दभालि) बताया है।
सझायज्झाणसंजुत्ते-स्वाध्याय से अभिप्राय है—अनुप्रेक्षणादि और ध्यान से अभिप्राय है-धर्मध्यान आदि शुभ ध्यान में संलीन।
झवियासवे—जिन्होंने हिंसा आदि आश्रवों अर्थात् कर्म-बन्ध के हेतुओं को निर्मूल कर दिया था।
अफ्फोवमंडवे—यह देशीय शब्द है, वृद्ध व्याख्याकारों ने इसका अर्थ किया है—वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि से आच्छादित मण्डप ।
वहेइ : दो अर्थ-(१) बींध दिया, (२) वध कर दिया। मुनि को देखते ही राजा द्वारा पश्चात्ताप और क्षमायाचना
६. अह आसगाओ राया खिप्पमागम्म सो तहिं।
हए मिए उ पासित्ता अणगारं तत्थ पासई॥ [६] तदनन्तर वह अश्वारूढ राजा शीघ्र ही वहाँ आया, (जहाँ मुनि ध्यानस्थ थे।) मृत हिरणों को देख कर उसने वहाँ एक ओर अनगार को भी देखा।
७. अह राया तत्थ संभन्तो अणगारो मणाऽऽहओ।
मए उ मन्दपुण्णेणं रसगिद्धेण घन्तुणा॥ [७] वहाँ मुनिराज को देखने पर राजा सम्भ्रान्त (भयत्रस्त) हो उठा। उसने सोचा-मुझ मन्दपुण्य (भाग्यहीन), रसासक्त एवं हिंसापरायण (घातक) ने व्यर्थ ही अणगान को आहत किया, पीड़ा पहुंचाई है।
८. आसं विसजइत्ताणं अणगारस्स सो निवो।
विणएण वन्दए पाए भगवं! एत्थ मे खमे॥ [८] उस नृप ने अश्व को (वहीं) छोड़ कर मुनि के चरणों में सविनय वन्दन किया और कहा'भगवन् ! इस अपराध के लिए मुझे क्षमा करें।'
विवेचन–तहिं : आशय-उस मण्डप में, जहाँ वे मुनि ध्यान कर रहे थे।
मणाऽऽहओ-उनके निकट में ही हिरणों को मार कर व्यर्थ ही मैंने मुनि के हृदय को चोट पहुँचाई है। १. उत्तरा. नियुक्ति, गाथा ३९७
२. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ४३८ ३. उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३९