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उत्तराध्ययन सूत्र प्रत्येक का परिचय–छिन्नविद्या—(१) वस्त्र, दांत, लकड़ी आदि में किसी भी प्रकार से हुए छेद या दरार के विषय में शुभाशुभ निरूपण करने वाली विद्या। (२) स्वरविद्या- षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, धैवत आदि सात स्वरों में से किसी स्वर का स्वरूप एवं फलादि कहना, बताना या गाना। (३) भौमविद्या-भूमिकम्पादि का लक्षण एवं शुभाशुभ फल बताना अथवा भूमिगत धन आदि द्रव्यों को जानना । (४) अन्तरिक्षविद्या-आकाश में गन्धर्वनगर, विग्दाह, धूलिवृष्टि आदि के द्वारा अथवा ग्रहनक्षत्रों के या उनके युद्धों के तथा उदय-अस्त के द्वारा शुभाशुभ फल कहना। (५) स्वप्नविद्या स्वप्न का शुभाशुभ फल कहना। (६) लक्षणविद्या-स्त्री-पुरुष के शरीर के लक्षणों को देखकर शुभाशुभ फल बताना । (७) दण्डविद्या-बांस के दण्ड या लाठी आदि को देखकर उसका स्वरूप तथा शुभाशुभ फल बताना। (८) वास्तुविद्या प्रासाद आदि आवासों के लक्षण, स्वरूप एवं तद्विषयक शुभाशुभ का कथन करना, (९) अंगविकारविद्या-नेत्र, मस्तक, भुजा आदि फडकने पर उसका शुभाशभ फल कहना।
०) स्वरविचयविद्या-कोचरी (दुर्गा), शृगाली, पशु-पक्षी आदि का स्वर जान कर शुभाशुभ फल कहना। सच्चा भिक्षु वह है, जो इन विद्याओं द्वारा आजीविका नहीं चलाता।
मंतं मूलं इत्यादि शब्दों का प्रासंगिक अर्थ (१) मंत्र-लौकिक एवं सावध कार्य के लिए मंत्र, तंत्र का प्रयोग करना या बताना । (२) मूल-वनस्पतिरूप औषधियों-जड़ीबूटियों का प्रयोग करना या बताना । (३) वैद्यचिन्ता-वैद्यकसम्बन्धी विविध औषधि आदि का विचार एवं प्रयोग करना। (४-५) वमन, विरेचन, (६) धूप-भूतप्रेतादि को भगाने के लिए मैनसिल वगैरह की धूप देना। (७) नेत्र या नेती
आँखों का सुरमा, अंजन, काजल, या जल नेती का प्रयोग बताना, (८) स्नान-पुत्रप्राप्ति के लिए मंत्र या जड़ीबूटी के जल से स्नान, आचमन आदि बताना1 (९) आतुर-स्मरण, एवं (१०) दूसरों की चिकित्सा करना, कराना।२
भोईअ दो अर्थ-(१) भोगिक-विशिष्ट वेशभूषा में रहने वाले राजमान्य अमात्य आदि प्रधान पुरुष, (२) भोगी-विशिष्ट गणवेश का उपभोग करने वाले।
भयभेरवा-(१) अत्यन्त भयोत्पादक अथवा (२) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार भय-आकस्मिकभय और भैरव-सिंहादि से उत्पन्न होने वाला भय।
खेयाणुगए : खेदानुगत : दो अर्थ-(१) विनय, वैयावृत्य एवं स्वाध्याय आदि प्रवृत्तियों से होने वाले कष्ट को खेद कहते हैं, उससे अनगत-युक्त, (२) खेद-संयम से अनुगत-सहित।
अविहेडए : अविहेटक—जो वचन और काया से दूसरों का अपवाद-निन्दा या प्रपंच नहीं करता या जो किसी का भी बाधक नहीं होता। १. (क) उत्तरा. मूलपाठ, अ. १५ गा.७ (ख) "अंगं सरो लक्खणं च वंजणं सुविणो तहा।
छण्ण-भोम्मंऽतलिक्खाए एमए अट्ठ आहिया॥"-अंगविज्जा १/२३ (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१६-४१७ २. वही, पत्र ४१७ ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१८ (ख) सुखबोधा, पत्र २१७ ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१९ (ख) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वृत्ति, पत्र १४३