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________________ २३६ उत्तराध्ययन सूत्र प्रत्येक का परिचय–छिन्नविद्या—(१) वस्त्र, दांत, लकड़ी आदि में किसी भी प्रकार से हुए छेद या दरार के विषय में शुभाशुभ निरूपण करने वाली विद्या। (२) स्वरविद्या- षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, धैवत आदि सात स्वरों में से किसी स्वर का स्वरूप एवं फलादि कहना, बताना या गाना। (३) भौमविद्या-भूमिकम्पादि का लक्षण एवं शुभाशुभ फल बताना अथवा भूमिगत धन आदि द्रव्यों को जानना । (४) अन्तरिक्षविद्या-आकाश में गन्धर्वनगर, विग्दाह, धूलिवृष्टि आदि के द्वारा अथवा ग्रहनक्षत्रों के या उनके युद्धों के तथा उदय-अस्त के द्वारा शुभाशुभ फल कहना। (५) स्वप्नविद्या स्वप्न का शुभाशुभ फल कहना। (६) लक्षणविद्या-स्त्री-पुरुष के शरीर के लक्षणों को देखकर शुभाशुभ फल बताना । (७) दण्डविद्या-बांस के दण्ड या लाठी आदि को देखकर उसका स्वरूप तथा शुभाशुभ फल बताना। (८) वास्तुविद्या प्रासाद आदि आवासों के लक्षण, स्वरूप एवं तद्विषयक शुभाशुभ का कथन करना, (९) अंगविकारविद्या-नेत्र, मस्तक, भुजा आदि फडकने पर उसका शुभाशभ फल कहना। ०) स्वरविचयविद्या-कोचरी (दुर्गा), शृगाली, पशु-पक्षी आदि का स्वर जान कर शुभाशुभ फल कहना। सच्चा भिक्षु वह है, जो इन विद्याओं द्वारा आजीविका नहीं चलाता। मंतं मूलं इत्यादि शब्दों का प्रासंगिक अर्थ (१) मंत्र-लौकिक एवं सावध कार्य के लिए मंत्र, तंत्र का प्रयोग करना या बताना । (२) मूल-वनस्पतिरूप औषधियों-जड़ीबूटियों का प्रयोग करना या बताना । (३) वैद्यचिन्ता-वैद्यकसम्बन्धी विविध औषधि आदि का विचार एवं प्रयोग करना। (४-५) वमन, विरेचन, (६) धूप-भूतप्रेतादि को भगाने के लिए मैनसिल वगैरह की धूप देना। (७) नेत्र या नेती आँखों का सुरमा, अंजन, काजल, या जल नेती का प्रयोग बताना, (८) स्नान-पुत्रप्राप्ति के लिए मंत्र या जड़ीबूटी के जल से स्नान, आचमन आदि बताना1 (९) आतुर-स्मरण, एवं (१०) दूसरों की चिकित्सा करना, कराना।२ भोईअ दो अर्थ-(१) भोगिक-विशिष्ट वेशभूषा में रहने वाले राजमान्य अमात्य आदि प्रधान पुरुष, (२) भोगी-विशिष्ट गणवेश का उपभोग करने वाले। भयभेरवा-(१) अत्यन्त भयोत्पादक अथवा (२) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार भय-आकस्मिकभय और भैरव-सिंहादि से उत्पन्न होने वाला भय। खेयाणुगए : खेदानुगत : दो अर्थ-(१) विनय, वैयावृत्य एवं स्वाध्याय आदि प्रवृत्तियों से होने वाले कष्ट को खेद कहते हैं, उससे अनगत-युक्त, (२) खेद-संयम से अनुगत-सहित। अविहेडए : अविहेटक—जो वचन और काया से दूसरों का अपवाद-निन्दा या प्रपंच नहीं करता या जो किसी का भी बाधक नहीं होता। १. (क) उत्तरा. मूलपाठ, अ. १५ गा.७ (ख) "अंगं सरो लक्खणं च वंजणं सुविणो तहा। छण्ण-भोम्मंऽतलिक्खाए एमए अट्ठ आहिया॥"-अंगविज्जा १/२३ (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१६-४१७ २. वही, पत्र ४१७ ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१८ (ख) सुखबोधा, पत्र २१७ ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१९ (ख) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वृत्ति, पत्र १४३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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