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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सभिक्षुकम् २३७ अमित्ते-अमित्र का सामान्य अर्थ है जिसके मित्र न हों। यहाँ आशय यह है कि मुनि के आसक्तिवर्द्धक मित्र नहीं होना चाहिए। तिविहेण नाणुकंपे : तात्पर्य-जो चारों प्रकार का आहार गृहस्थों से प्राप्त करके बाल, ग्लान आदि साधुओं पर अनुकम्पा (उपकार) नहीं करता, उन्हें नहीं देता, वह भिक्षु नहीं है, किन्तु जो साधक मन, वचन और काया से अच्छी तरह संवृत (संवरयुक्त) है, वह आहारादि से बाल, ग्लान आदि साधुओं पर अनुकम्पा (उपकार) करता है, वह भिक्षु है । यही इस गाथा का आशय है। वायं विविहं : व्याख्या-अपने-अपने दर्शन या धर्म का अनेक प्रकार का वाद या विवाद। जैसे कि—कोई पुल बांधने में धर्म मानता है, तो कोई पुल न बांधने में, कोई गृहवास में धर्म मानता है, कोई वनवास में, कोई मण्डन कराने में तो कोई जटा रखने में धर्म समझता है । इस प्रकार के नाना वाद हैं। लहु-अप्पभक्खी-लघु का अर्थ है-तुच्छ, नीरस और अल्प का अर्थ है-थोड़ा। अर्थात्नीरस भोजन और वह भी थोड़ी मात्रा में खाने वाला। एगाचरे : दो अर्थ—(१) एकाकी—रागद्वेषरहित होकर विचरण करने वाला, (२) तथाविध योग्यता प्राप्त होने पर दूसरे साधुओं की सहायता लिये बिना अकेला विचरण करने वाला। ॥ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सभिक्षुकम् समाप्त॥ 000 १. बृहवृत्ति, पत्र ४१९ २. बृहवृत्ति, ४१९-४२०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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