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'सोलहवां अध्ययन'
ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान
अध्ययन-सार
* प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान' है। इसमें ब्रह्मचर्यसमाधि के दस स्थानों के विषय में गद्य और पद्य में निरूपण किया गया है।
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* ब्रह्मचर्य, साधना का मेरुदण्ड है । साधुजीवन की समस्त साधनाएँ – तप, जप, समत्व, ध्यान, कायोत्सर्ग, परीषहविजय, कषायविजय, विषयासक्तित्याग, उपसर्गसहन आदि ब्रह्मचर्यरूपी सूर्य के इर्दगिर्द घूमने वाले ग्रहनक्षत्रों के समान हैं। यदि ब्रह्मचर्य सुदृढ़ एवं सुरक्षित है तो ये सब साधनाएँ सफल होती हैं, अन्यथा ये साधनाएँ केवल शारीरिक कष्टमात्र रह जाती हैं। * ब्रह्मचर्य का सर्वसाधारण में प्रचलित अर्थ — मैथुनसेवन का त्याग या वस्तिनिग्रह है । किन्तु भारतीय धर्मों की परम्परा में उसका इससे भी गहन अर्थ है— ब्रह्म में विचरण करना । ब्रह्म का अर्थ परमात्मा आत्मा, आत्मविद्या अथवा बृहद्ध्येय है। इन चारों में विचरण करने के अर्थ में ब्रह्मचर्य शब्द का प्रयोग होता रहा है । परन्तु ब्रह्म में विचरण सर्वेन्द्रियसंयम एवं मनः संयम के बिना हो नहीं सकता। इस कारण बाद में ब्रह्मचर्य का अर्थ सर्वेन्द्रिय-मन:संयम समझा जाने लगा। उसकी साधना के लिए कई नियम - उपनियम बने । प्रस्तुत अध्ययन में सर्वेन्द्रिय मन-संयमरूप ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए जो १० नियम हैं जिन्हें अन्य आगमों एवं ग्रन्थों में दस गुप्तियाँ या दस कारण बताए हैं, वे ही दस समाधिस्थान हैं। अर्थात् ब्रह्मचर्य को मन, बुद्धि, चित्त एवं हृदय में सम्यक् रूप से समाहित – प्रतिष्ठित या लीन करने के लिए ये दस नियम या कारण हैं।
* यद्यपि व्रत, नियम या मर्यादाएँ अपने आप में ब्रह्मचर्य नहीं हैं। बाह्यरूप से व्रत, नियम आदि पालन करने में ही ब्रह्मचर्य की साधना परिसमाप्त नहीं होती, क्योंकि कामवासना एवं अब्रह्मचर्य या विषयों में रमणता आदि विकारों के बीज तो भीतर हैं, नियम व्रत आदि तो ऊपर-ऊपर से कदाचित् शरीर के अंगोपांगों या इन्द्रियों को स्थूलरूप से अब्रह्मचर्यसेवन करने से रोक लें । अतः भीतर में छिपे विकारों को निर्मूल करने के लिए अनन्त आनन्द और विश्ववात्सल्य में आत्मा का रमण करना और शरीर, इन्द्रिय एवं मन के विषयों में आनन्द खोजने से विरत होना आवश्यक है । संक्षेप में — आत्मस्वरूप या आत्मभावों में रमणता से ही ये सब पर - रमणता के जाल टूट सकते हैं । यही ब्रह्मचर्य की परिपूर्णता तक पहुँचने का राजमार्ग है। फिर भी साधना के क्षेत्र में अथवा आत्मस्वरूप-रमणता में बार- बार जागृति एवं सावधानी के लिए इन नियम- मर्यादाओं की पर्याप्त उपयोगिता है। शरीर, इन्द्रियों एवं मन के मोहक वातावरण में साधक को अब्रह्मचर्य की ओर जाने से नियम या मर्यादाएँ रोकती हैं। अतः ये नियम ब्रह्मचर्यसाधना के सजग प्रहरी हैं। इनसे ब्रह्मचर्य की सर्वांगीण साधना में सुगमता रहती है।
* स्वयं शास्त्रकार ने इन दस समाधिस्थानों की उपयोगिता मूल पाठ में प्रारम्भ में बता दी है कि इनके पालन से साधक की आत्मा संयम, संवर और समाधि से अधिकाधिक सम्पन्न हो सकती है, बशर्ते कि वह मन, वचन, काया का संगोपन करे, इन्द्रियां वश में रखे, अप्रमत्तभाव से विचरण करे ।