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उत्तराध्ययन सूत्र [१४] प्रणिधानवान् (स्वस्थ या स्थिर चित्त वाला) मुनि दुर्जय कामभोगों का सदैव परित्याग करे और (ब्रह्मचर्य के पूर्वोक्त) सभी शंकास्थानों (भयस्थलों) से दूर रहे।
१५. धम्माराम चरे भिक्खू धिइमं धम्मसारही।
___धम्मारामरए दन्ते बम्भचरे-समाहिए। [१५] भिक्षु धृतिमान् (परीषह और उपसर्गों को सहने में सक्षम), धर्मरथ का सारथि, धर्म (श्रुतचारित्र रूप धर्म) के उद्यान में रत, दान्त तथा ब्रह्मचर्य में सुसमाहित होकर धर्म के आराम (बाग) में विचरण करे।
विवेचन-संकट्ठाणाणि सव्वाणि-पूर्व गाथात्रय में उक्त दसों ही शंकास्थानों का परित्याग करे, यह ब्रह्मचर्यरत साधु-साध्वी के लिए भगवान् की आज्ञारूप चेतावनी है। इस पर न चलने से आज्ञा-भंग अनवस्था मिथ्यात्व एवं विराधना के दोष की सम्भावना है।
१५वीं गाथा का द्वितीय अर्थ-ब्रह्मचर्यसमाधि के लिए भिक्षु धृतिमान्, धर्मसारथि, धर्माराम में रत एवं दान्त होकर धर्म रूप उद्यान में ही विचरण करे। यह अर्थ भी सम्भव है, क्योंकि ये दोनों गाथाएँ ब्रह्मचर्यविशुद्धि के लिए हैं।२
धर्मसारथि–यहाँ भिक्षु को धर्मसारथि इसलिए बतलाया गया है कि वह स्वयं धर्म में स्थिर होकर दूसरों (गृहस्थों, श्रावक आदि) को भी धर्म में प्रवृत करता है, स्थिर भी करता है। ब्रह्मचर्य-महिमा
१६. देव-दाणव-गन्धव्वा जक्ख-रक्खस-किन्नरा ।
बम्भयारि नमसन्ति दुक्करं जे करन्ति तं॥ [१६] देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ये सभी उस को नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता है।
१७. एस धम्मे धुवे निअए सासए जिणदेसिए।
सिद्धा सिज्झन्ति चणेण सिज्झिस्सन्ति तहावरे ॥ -त्ति बेमि । [१७] यह (ब्रह्मचर्यरूप) धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है। इस धर्म के द्वारा अनेक साधक सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होंगे। -ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन—देव आदि शब्दों के अर्थ-देव-ज्योतिष्क और वैमानिक, दानव-भवनपति, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ये व्यन्तर विशेष हैं । उपलक्षण से अन्य व्यन्तरदेवों का भी ग्रहण कर लेना चाहिए।
दुक्कर-कायर लोगों द्वारा कठिनता से आचरणीय । ध्रुवादि : अर्थ-ध्रुव-प्रमाण से प्रतिष्ठित, नित्य—त्रिकालसम्भवी, शाश्वत-अनवरत रहने वाला।
॥ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान : सोलहवाँ अध्ययन समाप्त ॥ ॥ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३० २. वही, पत्र ४३० ठिओ य ठावए परे।'-इति वचनात्। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३०