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उत्तराध्ययन सूत्र इत्थिजणस्स अभिलसणिज्जे-विभूषा करने वाला साधु स्त्रीजनों द्वारा अभिलाषणीय हो जाता है, स्त्रियाँ उसे चाहने लगती हैं, स्त्रियों द्वारा चाहे जाने या प्रार्थना किये जाने पर ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है, जैसे—जब स्त्रियाँ इस प्रकार मुझे चाहती हैं, तो क्यों न मैं इनका उपभोग कर लूं? अथवा इसका उत्कट परिणाम नरकगमन है, अतः क्या उपभोग न करूँ? ऐसी शंका तथा अधिक चाहने पर स्त्रीसेवन की आकांक्षा, अथवा बार-बार मन में ऐसे विचारों का भूचाल मच जाने से स्त्रीसेवन की प्रबल इच्छा हो जाती है और वह ब्रह्मचर्य भंग कर देता है। दसवाँ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान
१२. नो सद्द-रूव-रस-गन्ध-फासाणुवाई हवइ, से निग्गन्थे। तं कहमिति चे?
आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु सद्द-रूव-रस-गन्ध-फासाणुवाइस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भयं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेजा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गन्थे सद्द-रूव-रसगन्ध-फासाणुवाई हविज्जा। दसमे बम्भचेरसमाहिठाणे हवइ।
भवन्ति इत्थ सिलोगा, तं जहा[१२] जो साधक शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त नहीं होता, वह निर्ग्रन्थ है। [प्र.] ऐसा क्यों?
[उ.] उत्तर में आचार्य कहते हैं-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त होने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है अथवा ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है, अथवा उसे उन्माद पैदा हो जाता है, या फिर दीर्घकालिक रोग या आतंक हो जाता है, अथवा वह केवलिभाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में अनुपाती (-आसक्त) न बने। यह ब्रह्मचर्यसमाधि का दसवाँ स्थान है।
इस विषय में यहाँ कुछ श्लोक हैं, जैसे
विवचेन—सद्द-रूव-रस-गंध-फासाणुवाई : स्त्रियों के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अनुपाती-मनोज्ञ शब्दादि को देखकर पतित होने वाला या फिसल जाने वाला या उनमें आसक्त। जैसे कि-शब्द-स्त्रियों के कोमल ललित शब्द या गीत, रूप-उनके कटाक्ष, वक्षस्थल, कमर आदि का या उनके चित्रों का अवलोकन, रस-मधुरादि रसों द्वारा अभिवृद्धि पाने वाला, गन्ध-कामवर्द्धक सुगन्धित पदार्थ एवं स्पर्श-आसक्तिजनक कोमल कमल आदि का स्पर्श, इनमें लुभा जाने (आसक्त हो जाने) वाला।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२७ २. बृहवृत्ति, पत्र ४२७-४२८