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ग्यारहवाँ अध्ययन
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बहुश्रुतपूजा * प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत और अबहुश्रुत का अन्तर बताने के लिए सर्वप्रथम अबहुश्रुत का
स्वरूप बताया गया है, जो कि बहश्रत बनने वालों को योग्यता. प्रकति. अनासक्ति. अलोलपता एवं विनीतता प्राप्त करने के विषय में गंभीर चेतावनी देने वाला है। तत्पश्चात् तीसरी और चौथी गाथा में अबहुश्रुतता और बहुश्रुतता की प्राप्ति के मूल स्रोत शिक्षाप्राप्ति के अयोग्य और योग्य के क्रमशः ५ और ८ कारण बताए गए हैं । तदनन्तर छठी से तेरहवीं गाथा तक अबहुश्रुत और बहुश्रुत होने में मूल-कारणभूत अविनीत और सुविनीत के लक्षण बताए गए हैं। इसके पश्चात् बहुश्रुत
बनने का क्रम बताया गया है। * इतनी भूमिका बांधने के बाद शास्त्रकार ने अनेक उपमाओं से उपमित करके बहुश्रुत की महिमा,
तेजस्विता, आन्तरिकशक्ति, कार्यक्षमता एवं श्रेष्ठता को प्रकट करने के लिए उसे शंख, अश्व,
गजराज, उत्तम वृषभ आदि की उपमाओं से अलंकृत किया है। * अन्त में बहुश्रुतता की फलश्रुति मोक्षगामिता बताकर बहुश्रुत बनने की प्रेरणा की गई है।
| १. उत्तराध्ययनसूत्र मूल, अ०११, गा० २ से १४ तक
२. उत्तराध्ययनसूत्र मूल, अ० ११, गा० १५ से ३२ तक