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उत्तराध्ययनसूत्र चतुरंगीय होने पर मनुष्य हेयोपादेय, श्रेय-अश्रेय, हिताहित, कार्याकार्य का विवेक नहीं कर सकता। इसीलिए मनुष्यता के बाद सद्धर्मश्रवण को परम दुर्लभ बताया है। श्रवण के बाद तीसरा दुर्लभ अंग है-श्रद्धा-यथार्थ दृष्टि, धर्मनिष्ठा, तत्त्वों के प्रति रुचि और प्रतीति । जिसकी दृष्टि मिथ्या होती है, वह सद्धर्म, सच्छास्त्र एवं सत्तत्व की बात जान-सुन कर भी उस पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं करता। कदाचित् सम्यक् दृष्टिकोण के कारण श्रद्धा भी कर ले, तो भी उसकी ऋजुप्रकृति के कारण सद्गुरु एवं सत्संग के अभाव में या कुदृष्टियों एवं अज्ञानियों के संग से असत्तत्व एवं कुधर्म के प्रति भी श्रद्धा का झुकाव हो सकता है, जिसका संकेत बृहद्वृत्तिकार ने किया है। सुदृढ एवं निश्चल-निर्मल श्रद्धा की दुर्लभता बताने के लिये नियुक्तिकार ने इस अध्ययन में सात निह्नवों की कथा दी है। इस कारण यह कहा जा सकता है कि सच्ची श्रद्धा-धर्मनिष्ठा परम
दुर्लभ है। * अन्तिम दुर्लभ परम अंग है-संयम में पराक्रम-पुरुषार्थ । बहुत से लोग धर्मश्रवण करके, तत्व,
समझ कर श्रद्धा करने के बाद भी उसी दिशा में तदनुरूप पुरुषार्थ करने से हिचकिचाते हैं। अतः जानना-सुनना और श्रद्धा करना एक बात है और उसे क्रियान्वित करना दूसरी । सद्धर्म को क्रियान्वित करने में चारित्रमोह का क्षयोपशम, प्रबल संवेग, प्रशम, निर्वेद,(वैराग्य) प्रबल आस्था, आत्मबल, धृत्ति, संकल्पशक्ति, संतोष, अनुद्विग्न, आरोग्य, वातावरण, उत्साह आदि अनिवार्य हैं । ये सब में नहीं होते। इसीलिये सबसे अन्त में संयम में पुरुषार्थ को दुर्लभ बताया है, जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ
भी प्राप्तव्य नहीं रह जाता। * अध्ययन के अन्त में ११वीं से २० वीं तक दस गाथाओं में दुर्लभ चतुरंगीय के अनन्तर धर्म की
सांगोपांग आराधना करने की साक्षात् और परस्पर फलश्रुति दी गई है। संक्षेप, में सर्वांगीण धर्माराधना का अन्तिम फल मोक्ष है।
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१. आलस मोहऽवन्ना, थंमा कोहा पमाय किविणता।
भयसोगा अन्नाणा, वक्खेव कुऊहला रमणा॥ - उत्तरा० नियुक्ति, गा० १६१ ननु एवंविधा अपि केचिदत्यन्तमजवः सम्भवेयुः? ... स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्नाः-उत्त० बृहपत्ति, पत्र १५२ बहुरयपएस अव्वत्तसमुच्छ दुग-तिग-अबद्धिका चेव। एएसिं निग्गमणं वुच्छामि अहाणुपुष्वीए॥ बहुरय जमालिपभवा, जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वत्ताऽऽसाढाओ, सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ। गंगाए दो किरिया, छलगा तेरासियाण उप्पत्ती। थेरा य गुट्ठमाहिल पुट्ठमबद्धं परूविंति ॥ -उत्त० नियुक्ति, गा० १६४ से १६६ तक