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उत्तराध्ययन सूत्र
गच्छे जक्खसलोगयं-यक्षसलोकतां—यक्ष अर्थात् देव, देवों के समान लोक-स्थान का प्राप्त करता है। आचार्य सायण और शंकराचार्य ने 'सलोकता' का अर्थ –'समान लोक या एक स्थान में बसनासमान लोक में निवास करना' किया है।
विमोहाई-मोहरहित । मोह के दो अर्थ—द्रव्यमोह-अन्धकार, भावमोह-मिथ्यादर्शन। ऊपर के देवलोकों में ये दोनों मोह नहीं होते। इसलिए वे आवास विमोह कहलाते हैं । अथवा शान्त्याचार्य ने यह अर्थ भी किया है—वेदादिमोहनीय का उदय स्वल्प होने से विमोह की तरह वे विमोह हैं।२
अहुणोववनसंकासा-अभी-अभी उत्पन्न के समान अथवा प्रथम उत्पन्न देव के तुल्य । तात्पर्य यह है कि अनुत्तर देवों में आयुष्यपर्यन्त वर्ण, कान्ति आदि घटते नहीं तथा देवों में औदारिक शरीर की तरह बालक, युवक, वृद्धादि अवस्थाएँ नही होती, आयुष्य के अन्त तक वे एक समान अवस्था में रहते हैं।
'संतसंतिमरणंते' का तात्पर्य यह है कि अपने जीवन में धर्मोपार्जन नहीं किये हुए अविरत, असंयमी, पापकर्मी जन अन्तिम समय में जैसे मृत्यु का नाम सुनते ही घबराते हैं, अपने पापकृत्यों का स्मरण करके तथा इन पापों के फलरूवरूप न मालूम 'मैं कहाँ जाऊंगा?' इस प्रकार शोक एवं परिवारादि में मोहग्रस्त होने के कारण विलाप एवं रुदन करते हैं, वैसे धर्मोपार्जन किये हुए संयमी, शीलवान् धर्मात्मा पुरुष धर्मफल को जानने के कारण नहीं घबराते, न ही भय, चिन्ता, शोक, विलाप या रुदन करते हैं। सकाममरण प्राप्त करने का उपदेश और उपाय
३०. तुलिया विसेसमादाय दयाधम्मस्स खन्तिए।
विप्पसीएज मेहावी तहा-भूएण अप्पणा॥ [३०] मेधावी साधक पहले अपने आपका परीक्षण करके बालमरण से पण्डितमरण की विशेषता जान कर विशिष्ट सकाममरण को स्वीकार करे तथा दयाप्रधानधर्म-(दशविध यतिधर्म)-सम्बन्धी क्षमा (उपलक्षण से मार्दवादि) से और तथाभूत (उपशान्त-कषाय-मोहादिरूप)आत्मा से प्रसन्न रहे (–मरणकाल में उद्विग्न न बने)।
३१. तओ काले अभिप्पेए सड्ढी तालिसमन्तिए।
विणएज लोम-हरिसं भेयं देहस्स कंखए। [३१] उसके पश्चात् जब मृत्युकाल निकट आए, तब भिक्षु ने गुरु के समीप जैसी श्रद्धा से प्रव्रज्या या संलेखना ग्रहण की थी, वैसी ही श्रद्धावाला रहे और (परीषहोपसर्ग-जनित) रोमांच को दूर करे तथा १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २५२ (ख) ऐतरेय आरण्यक० ३/२/१/७, पृ. २४२-२४३ . 'सलोकतां समानलोकवासित्वमश्नुते।'
(ग) 'सलोकतां समानलोकतां वा एकस्थनात्वम्' -बृहदारण्यक उ., पृ. ३९१ २. बृहद्वत्ति, पत्र २५२ ३. (क) उत्तरा. चूर्णि, पृ. १४०, (ख) बृहवृत्ति, पत्र २५२ (ग) सुखबोधा पत्र १०८ ४. सुखबोधा, पत्र १०८- 'सुगहियतवपन्थवगा, विसुद्धसम्मत्तनाणचारित्ता।
मरणं ऊसवभयं, मन्नति समाहियप्याणो॥' .