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नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या
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है, चाहे वह घोर हो या अघोर । इसलिए मैं गृहस्थाश्रम को छोड़ रहा हूँ, वह उचित ही है।
'स्वाख्यातधर्म' का अर्थ - तीर्थंकर आदि के द्वारा सर्वसावधप्रवृत्तियों से विरति रूप होने से जिसे सर्वथा सुष्ठ-शोभन कहा गया (कथित) है। आशय यह है कि तीर्थंकरों द्वारा कथित सर्वविरतिचारित्ररूप धर्म स्वाख्यात है। इसका समग्ररूप से आचरण करने वाला स्वाख्यातधर्मा -सर्वविरतिचारित्रवान् मुनि होता है।
'कुसग्गेण तु भुंजए' : दो रूप, दो अर्थ - (१) जो कुश की नोक पर टिके उतना ही खाता है, (२) कुश के अग्रभाग से ही खाता है, अंगुली आदि से उठा कर नहीं खाता। पहले का आशय एक बार खाना है, जबकि दूसरे का आशय अनेक बार खाना है।३ नवम प्रश्नोत्तर : हिरण्यादि तथा भण्डार की वृद्धि करने के सम्बन्ध में
४५. एयमढें निसामित्ता हेउकारण - चोइओ।
तओ नमिं रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी- ॥ [४५] (राजर्षि का) पूर्वोक्त कथन सुनकर हेतु और कारणों से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा
४६. 'हिरण्णं सुवण्णं मणिमुत्तं कंसं दूसं च वाहणं।
कोसं वड्ढावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया!॥' ___ [४६] हे क्षत्रियप्रवर! (पहले) आप चांदी, सोना, मणि, मुक्ता, कांसे के पात्र, वस्त्र, वाहन और कोश (भण्डार) की वृद्धि करके तत्पश्चात् प्रव्रजित होना।
४७. एयमढं निसामित्ता हेउकारण - चोइओ।
तओ नमी रायरिसिं देविन्द इणमब्बवी- ॥ [४७] इस बात को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार
कहा
४८. 'सुवण्ण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया॥' ___[४८] कदाचित् सोने और चांदी के कैलाशपर्वत के तुल्य असंख्य पर्वत हो (मिल जाए), फिर भी लोभी मनुष्य की उनसे किंचित् भी तृप्ति नहीं होती, क्योंकि (मनुष्य की) इच्छा आकाश के समान अनन्त होती है।
४९. पुढवी साली जवा चेव हिरण्णं पसुभिस्सह।
पडिपुण्णं नालमेगस्स इइ विजा तवं चरे॥ १-२-३. बृहवृत्ति, पत्र ३१६