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नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या
५१. 'अच्छेरगमब्भुदए भोए चयसि पत्थिवा! | असन्ते कामे पत्थेसि संकप्पेण विहन्नसि ।।'
[५१] हे पृथ्वीपते ! आश्चर्य है कि तुम सम्मुख आए हुए ( प्राप्त) भोगों को त्याग रहे हो और अप्राप्त (अविद्यमान) काम - भोगों की अभिलाषा कर रहे हो! ( मालूम होता है ) ( उत्तरोत्तर अप्राप्तभोगाभिलाषरूप) सकंल्प-विकल्पों से तुम बाध्य किये जा रहे हो ।
५२. एयमट्ठ निसामित्ता हेडकारण - चोइओ । ओ नमि रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी - ॥
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[५२] (देवेन्द्र की) इस बात को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित होकर नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को इस प्रकार कहा
५३.
'सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोमवा । कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दोग्गइं ॥'
[ ५३ ] ( ये शब्दादि) काम-भोग शल्य रूप हैं, ये कामादि विषय विषतुल्य हैं, ये काम आशीविष सर्प के समान हैं। कामभोगों को चाहने वाले ( किन्तु परिस्थितिवश ) उनका सेवन न कर सकने वाले जीव भी दुर्गति प्राप्त करते हैं ।
५४.
अहे वयइ कोहेणं माणेणं अहमा गई । माया गई डिग्घाओ लोभाओ दुहओ भयं ॥
[५४] क्रोध से जीव अधो (नरक) गति में जाता है, मान से अधमगति होती है, माया से सद्गति का प्रतिघात (विनाश) होता है और लोभ इहलौकिक और पारलौकिक - दोनों प्रकार का भय होता
है।
विवेचन – इन्द्र - कथित हेतु और कारण - जो विवेकवान् होता है, वह अप्राप्त की आकांक्षा से प्राप्त कामभोगों को नही छोड़ता, जैसे- ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि। यह हेतु है अथवा इस प्रकार भी है - आप कामभोगों के परित्यागी नहीं हैं क्योंकि आप में अप्राप्त कामभोगों की अभिलाषा विद्यमान है। जो-जो ऐसे होते हैं, प्राप्त कामों के परित्यागी नहीं होते, जैसे मम्मण सेठ । उसी तरह आप भी हैं। इसलिए आप प्राप्त कामों के परित्यागी नहीं हो सकते तथा कारण इस प्रकार है - प्रव्रज्याग्रहण से अनुमान होता है, आप में अप्राप्त भोगों की अभिलाषा है, किन्तु अप्राप्त भोगों की अभिलाषा, प्राप्त कामभोगों के अपरित्याग के बिना बन नहीं सकती। इसलिए प्राप्त कामभोगों का परित्याग करना अनुचित है ।
नाम राजर्षि द्वारा उत्तर का आशय - मोक्षाभिलाषी के लिए विद्यमान और अविद्यमान, दोनों प्रकार के कामभोग शल्य, विष और आशीविष सर्प के समान हैं। रागद्वेष के मूल एवं कषायवर्द्धक होने से इन दोनों प्रकार के कामभोगों की अभिलाषा सावद्यरूप है। इसलिए मोक्षाभिलाषी के लिए प्राप्त या अप्राप्त
१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१७ (ख) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४४७-४४८