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तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय
उनकी बुद्धि में यह आग्रह घुसा कि एक समय में जीव एक ही क्रिया का अनुभव करता है, यह आगमकथन वर्तमान में क्रियाद्वय के अनुभव से सत्य प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इस समय मैं एक साथ शीत और उष्ण दोनों स्पर्शों का अनुभव कर रहा हूँ। आचार्य धनगुप्त ने उन्हें विविध युक्तियों से सत्य सिद्धान्त समझाया, मगर उन्होंने दुराग्रह नहीं छोड़ा। संघबहिष्कृत होकर वे राजगृह में आए। वहाँ मणिप्रभ यक्ष ने द्विक्रियावाद की असत्यप्ररूपणा से कुपित होकर मुद्गरप्रहार किया। कहा—"भगवान् ने स्पष्टतया यह प्ररूपणा की है कि एक जीव को क्रियाद्वय का एक साथ अनुभव नहीं होता (एक साथ दो उपयोग नहीं होते) । वास्तव में आपकी भ्रान्ति का कारण समय ही अतिसूक्ष्मता है। अतः असत्यप्ररूपणा को छोड़ दो, अन्यथा मुद्गर से मैं तुम्हारा विनाश कर दूंगा।" यक्ष के युक्तियुक्त तथा भयप्रद वचनों से प्रतिबुद्ध होकर गंगाचार्य ने दुराग्रह का त्याग करके आत्मशुद्धि की।
(६) षडुलूक रोहगुप्त- श्रीगुप्ताचार्य का शिष्य रोहगुप्त अंतरंजिका नगरी में उनके दर्शनार्थ आया। वहाँ पोट्टशाल परिव्राजक ने यह घोषणा की "मैंने लोहपट्ट पेट पर इसलिए बांध रखा है, मेरा पेट अनेक विद्याओं से पूर्ण होने के कारण फट रहा है। तथा जामुन वृक्ष की शाखा इसलिए ले रखी है कि जम्बूद्वीप में मेरा कोई प्रतिवादी नहीं रहा।" रोहगुप्त मुनि ने गुरुदेव श्रीगुप्ताचार्य से बिना पूछे ही उसकी इस घोषणा एवं पटह वादन को रुकवा दिया। श्रीगुप्ताचार्य से जब बाद में रोहगुप्त मुनि ने यह बात कही तो उन्होंने कहातुमने अच्छा नहीं किया। वाद में पराजित कर देने पर भी वह परिव्राजक वृश्चिकादि ७ विद्याओं से तुम पर उपद्रव करेगा। परन्तु रोहगुप्त ने वादविजय और उपद्रवनिवारण के लिए आशीर्वाद देने का कहा तो गुरुदेव ने मायूरी आदि सात ७ विद्याएँ प्रतीकारार्थ दी तथा क्षुद्र विद्याकृत उपसर्ग-निवारणार्थ रजोहरण मंत्रित करके दे दिया। रोहगुप्त राजसभा में पहुँचा। परिव्राजक ने जीव और अजीव-राशिद्वय का पक्ष प्रस्तुत किया जो वास्तव में रोहगुप्त का ही पक्ष था, रोहगुप्त ने उसे पराजित करने हेतु स्वसिद्धान्तविरुद्ध 'जीव, अजीव और नो जीव,' यों राशित्रय का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। नोजीव में उदाहरण बताया-छिपकली की कटी हुई पूंछ आदि। इससे परिव्राजक ने वाद में निरुत्तर होकर रोषवश रोहगुप्त को नष्ट करने हेतु उस पर वृश्चिकादि विद्याओं का प्रयोग किया, परन्तु रोहगुप्त ने उनकी प्रतिपक्षी सात विद्याओं के प्रयोग से वृश्चिकादि सबको भगा दिया। सब ने परिव्राजक को पराजित करके नगरबहिष्कृत कर दिया।
गुरुदेव के पास आकर रोहगुप्त ने त्रिराशि के पक्ष में स्थापन से विजयप्राप्ति का वृत्तान्त बतलाया और उन्होंने कहा—यह तो तुमने सिद्धान्त-विरुद्ध प्ररूपणा की है। अत: राजसभा में जाकर ऐसा कहो कि "मैंने तो सिर्फ परिव्राजक का मान मर्दन करने के उद्देश्य से त्रिराशि पक्ष उपस्थित किया था, हमारा सिद्धान्त द्विराशिवाद का ही है।' परन्तु रोहगुप्त बहुत समझाने पर भी अपने दुराग्रह पर अड़ा रहा। गुरु के साथ प्रतिवाद करने को उद्यत हो गया। फलत: बलश्री राजा की राजसभा में गरु-शिष्य का छह महीने तक विवाद चला। अन्त में राजा आदि के साथ श्रीगुप्ताचार्य कुत्रिकापण पहुँचे, वहाँ जाकर जीव और अजीव क्रमशः मांगा तो दुकानदार ने दोनों ही पदार्थ दिखला दिये। परन्तु 'नोजीव' मांगने पर दुकानदार ने कहा—'नोजीव' तो तीन लोक में भी नहीं है। तीन लोक में जो जो चीजें हैं । वे सब यहाँ मिलती हैं। नोजीव तीन लोक में है ही नहीं। दुकानदार की बात सुनकर आचार्य महाराज ने उसे फिर समझाया, वह नहीं माना, तब रोहगुप्त को पराजित घोषित करके राजसभा से बहिष्कृत कर दिया। गच्छबहिष्कृत होकर रोहगुप्त ने वैशेषिकदर्शन चलाया।