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पंचम अध्ययन : अकाममरणीय
२९. तेसिं सोच्चा सपुज्जाणं संजयाणं वुसीमओ । न संतसन्ति मरणन्ते सीलवन्ता बहुस्सुया ॥
[२९] उन सत्पूज्य, संयत और जितेन्द्रिय मुनियों का (पूर्वोक्त स्थानों की प्राप्ति का ) वृतान्त सुन कर शीलवान् और बहुश्रुत (आगम श्रवण से शुद्ध बुद्धि वाले) साधक मृत्युकाल में भी संत्रस्त (उद्विग्न) नहीं होते ।
विवेचन — 'वुसीमओ': के पांच रूप : पांच अर्थ - ( १ ) वश्यवन्तः - आत्मा या इन्द्रियाँ जिनके वश में हों, (२) वुसीमन्तः - साधुगुणों से जो बसते हैं— या वासित हैं, (३) वुसीमा संविग्न— संवेगसम्पन्न, (४) वुसिमं—संयमवान् (वुसि संयम का पर्यायवाची होने से ), (५) वृषीमान् — कुश आदि-निर्मित मुनि का आसन जिसके पास हो अथवा वृषीमान् — मुनि या संयमी । १
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विप्पसण्णं विप्रसन्न : चार अर्थ - (१) मृत्यु के समय कषाय-कालुष्य के मिट जाने से सुप्रसन्न अकलुष मन वाला, (२) विशेषरूप से या विविध भावनादि के कारण मृत्यु के समय भी मोह - रज हट जाने से अनाकुल चित्त वाला मरण, (३) पाप-पंक के दूर हो जाने से प्रसन्न अति स्वच्छ-निर्मल— पवित्र (मरण) (४) विप्रसन्न - विशिष्ट चित्तसमाधियुक्त (मरण) ।
अणाघायं - जिस मृत्यु में किसी प्रकार का आघात, शोक, चिन्ता, अथवा विप्पसण्णामघायं को एक ही समस्त पद तथा उसका संस्कृत रूप 'विप्रसन्नमनः ख्यातम्' मान कर अर्थ किया गया है— कषाय एवं मोहरूप कलुषितता अन्त:करण (मन) में लेशमात्र भी न होने से विप्रसन्नमना - वीतरागमहामुनि हैं, उनके द्वारा ख्यात—कथित अथवा स्वसंवेदन से प्रसिद्ध । २
नाणासीला – नानाशीला : - तीन व्याख्याएँ – (१) चूर्णि के अनुसार- गृहस्थ नाना- विविध शीलस्वभाव वाले, विविध रुचि वाले और अभिप्राय वाले होते हैं, (२) आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार नाना- शील अर्थात् अनेकविधव्रत या मत वाले — जैसे कि कई कहते हैं— 'गृहस्थाश्रम का पालन करना ही महाव्रत है, किसी का कथन —— गृहस्थाश्रम से बढ़कर कोई भी धर्म न तो हुआ है, न होगा। जो शूरवीर होते हैं, वे ही इसका पालन करते हैं, नपुसंक (कायर) लोग पाखण्ड का आश्रय लेते हैं। कुछ लोगों का कहना है— गृहस्थों के सात सौ शिक्षाप्रद व्रत हैं; इत्यादि । (३) शान्त्याचार्य के अनुसार — गृहस्थों के अनेकविध शील अर्थात्अनेकविधव्रत हैं । अर्थात्— देशविरति रूप व्रतों के अनेक भंग होने के कारण गृहस्थव्रतपालन अनेक प्रकार से होता है । ३
विसमसीला – विषमशीलाः – दो व्याख्याएँ— (१) शान्त्याचार्य के अनुसार भिक्षु भी विषम अर्थात् अति दुर्लक्षता के कारण अति गहन विसदृशशील यानी आचार वाले होते हैं, जैसे कि कई पांच यमों और पांच नियमों को, कई कन्दमूल, फलादि - भक्षण को, कतिपय आत्मतत्त्व-परिज्ञान को ही व्रत मानते हैं। (२) चूर्णिकार
१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्रांक २४९
(ग) सूत्रकृतांग २/२ सू०३२ भिसिगं (वृषिकं) वा ।
(ख) उत्त० चूर्णि, पृ० १३७
(घ) वुसिमंति संयमवान् — सूत्रकृतांग वृत्ति २ / ६ / १४
२. बृहद्वृत्ति, पत्र २४९
३.
(क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० १३७ (ख) सुखबोधा, पत्र १०६ (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र २४९