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चतुर्थ अध्ययन
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असंस्कृत सकता। अतः दृढ़ता से संयमपथ पर खड़े होकर आलस्य एवं कामभोगों को छोड़ो, लोकानुप्रेक्षा
करके समभाव में रमो। अप्रमत्त होकर स्वयं आत्मरक्षक बनो। * इसी प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में बीच-बीच में प्रमाद के भयस्थलों से बचने का भी निर्देश किया गया
है- (१) मोहनिद्रा में सुप्त व्यक्तियों में भी भारण्डपक्षीवत् जागृत होकर रहो, (२) समय शीघ्रता से आयु को नष्ट कर रहा है, शरीर दुर्बल व विनाशी है, इसलिए प्रमाद में जरा भी विश्वास न करो, (३) पद-पद पर दोषों से आशंकित होकर चलो, (४) जरा-सा भी प्रमाद (मन-वचन-काया की अजागृति) को बन्धनकारक समझो। (५) शरीर का पोषण-रक्षण-संवर्धन भी तब तक करो, जब तक कि उससे ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति हो, जब गुणप्राप्ति न हो, ममत्व व्युत्सर्ग कर दो, (६) विविध अनुकूल-प्रतिकूल विषयों पर राग-द्वेष न करो, (७) कषायों का परित्याग भी अप्रमादी के लिए आवश्यक है, (८) प्रतिक्षण अप्रमत्त रह कर अन्तिम सांस तक रत्नत्रयादिगुणों की आराधना में तत्पर रहो। ये ही अप्रमाद के मूलमंत्र प्रस्तुत अध्ययन में भलीभाँति प्रतिपादित किये गए हैं।
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१. उत्तराध्ययन मूल, अ, ४, गा० १०
२. वही, गा०६,७, ११, १२, १३