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उत्तराध्ययन सूत्र
'न मे दिट्टे पर लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई' इस पंक्ति के द्वारा पंचभूतवादी अनात्मवादी या तज्जीवतच्छरीरवादी का मत बताया गया है, जो प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं । 'हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया' इस पंक्ति के द्वारा भूत और भविष्य की उपेक्षा करके वर्तमान को ही सब कुछ मानने वाले अदूरदर्शी प्रेयवादियों का मत व्यक्त किया गया है, जो केवल वर्तमान, कामभोगजन्य सुखों को ही सर्वस्व मानते हैं। तथा 'जणेण सद्धि होक्खामि' इस पंक्ति द्वारा गतानुगतिक विवेकमूढ बहिरात्माओं का मत व्यक्त किया गया है। इस तीन मिथ्यामतों के कारण ही बालजीव धृष्ट और नि:संकोच होकर हिंसादि पापकर्म करते
'अट्ठाए य अणट्ठाए' - का अर्थ क्रमशः प्रयोजनवश एवं निष्प्रयोजन हिंसा है।
उदाहरण- एक पशुपाल की आदत थी कि वह जंगल में बकरियों को एक वटवृक्ष के नीचे बिठा कर स्वयं सीधा सोकर बांस के गोफण से बेर की गुठलियाँ फेंक कर वृक्ष के पत्तों को छेदा करता था। एक दिन उसे एक राजपुत्र ने देखा और उसके पत्रच्छेदन-कौशल को देखकर उसे धन का प्रलोभन देकर कहामैं कहूँ, उसकी आँखें बींध दोगे? उसने स्वीकार किया तो राजपुत्र उसे अपने साथ नगर में ले आया। अपने भाई-राजा की आँख फोड़ डालने के लिए उसने कहा तो उस पशुपाल ने तपाक से उसकी आँखें फोड़ डाली। राजपुत्र ने प्रसन्न होकर उसकी इच्छानुसार उसे एक गाँव दे दिया।
सढे शठ-यों तो शठशब्द का अर्थ धूर्त, दुष्ट मूढ या आलसी होता है, परन्तु बृहद्वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं वेषादि परिवर्तन करके जो अपने को अन्य रूप में प्रकट करता है। यहाँ मण्डिक चोर के दृष्टान्त का निर्देश किया गया है।
दुहओ-दो प्रकार से, इसके अनेक विकल्प-(१) राग और द्वेष से, (२) बाह्य और आन्तरिक प्रवृत्तिरूप प्रकार से, (३) इहलोक और परलोक दोनों प्रकार के बन्धनों में, (४) पुण्य और पाप दोनों के, (५) स्वयं करता हुआ और दूसरों को कराता हुआ और (६) अन्त:करण और वाणी दोनों से।
मलं- आठ प्रकार के कर्मरूपी मैल का।
सिसुणागुव्व–शिशुनाग कैंचुआ या अलसिया को कहते हैं। वह पेट में (भीतर) मिट्टी खाता है, और बाहर से अपने स्निग्ध शरीर पर मिट्टी चिपका लेता है। इस प्रकार अन्दर और बाहर दोनों ओर से वह मिट्टी का संचय करता है।६
_ 'उववाइयं' पद का आशय-उववाइयं का अर्थ होता है-'औपपातिक'। जैनदर्शन में तीन प्रकार से प्राणियों की उत्पत्ति (जन्म) बताई गई है—समूर्छन, गर्भ और उपपात। द्वीन्द्रियादि जीव सम्मूछिम हैं, पशु-पक्षी आदि गर्भ और नारक तथा देव औपपातिक होते हैं। गर्भज जीव गर्भ में रहता है, वहाँ तक छेदन-भेदनादि की पीड़ा नहीं होती, किन्तु औपापातिक जीव अन्तर्मुहूर्त भर में पूर्ण शरीर वाले हो जाते हैं, १. उत्तराध्ययनमूल, अ. ५ गा. ५-६-७ २. बृहद्वृत्ति, पत्र २४४-२४५ ३. 'शठः–तन्नैपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूतमात्मानमन्यथा दर्शयति, मण्डिकचोरवत्' -बृहद्वृत्ति, पत्र २४४ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र २४४ ५. वही, पत्र २४४ ६.ब्रहवृत्ति, पत्र २४६ ७. 'सम्मूर्च्छन-गर्भोपपाता जन्म-तत्त्वार्थसूत्र २/३२