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उत्तराध्ययनसूत्र
_[२] जो गुरुजनों की आज्ञा (विध्यात्मक आदेश) और निर्देश (संकेत या सूचना) के अनुसार (कार्य) करता है, गुरुजनों के निकट (सान्निध्य में) रह कर (मन और तन से) शुश्रूषा करता है तथा उनके इंगित और आकार को सम्यक् प्रकार से जानता है, वह 'विनीत' कहा जाता है।
३. आणाऽनिदेसकरे, गुरूणमणुववायकारए।
__ पडिणीए असंबुद्धे, 'अविणीए' त्ति वुच्चई॥ [३] जो गुरुजनों की आज्ञा एवं निर्देश के अनुसार (कार्य) नहीं करता, गुरुजनों के निकट रह कर शुश्रूषा नहीं करता, उनसे प्रतिकूल व्यवहार करता है तथा जो असम्बुद्ध (-उनके इंगित और आकार के बोध अथवा तत्त्वबोध से रहित) है; वह 'अविनीत' कहा जाता है।
विवेचन—आज्ञा और निर्देश प्राचीन आचार्यों ने इन दोनों शब्दों को एकार्थक माना है। अथवा आज्ञा का अर्थ-आगमसम्मत उपदेश या मर्यादाविधि एवं निर्देश का अर्थ-उत्सर्ग और अपवाद रूप से उसका प्रतिपादन किया गया है। अथवा आज्ञा का अर्थ गुरुवचन और निर्देश का अर्थ शिष्य द्वारा स्वीकृतिकथन है। विनीत का प्रथम लक्षण आज्ञा और निर्देश का पालन करना है।३।।
___उपपातकारक-बृहद्वृत्ति के अनुसार- सदा गुरुजनों का सान्निध्य (सामीप्य) रखने वाला अर्थात्जो शरीर से उनके निकट रहे, मन से उनका सदा ध्यान रखे। चूर्णि के अनुसार- उनकी शुश्रूषा करने वाला—जो वचन सुनते रहने की इच्छा से तथा सेवाभावना से युक्त हो। इस प्रकार उपपातकारक विनीत का दूसरा लक्षण है।५
इंगियागारसंपन्ने-इंगित का अर्थ है-शरीर की सूक्ष्मचेष्टा जैसे—किसी कार्य के विधि या निषेध के लिए सिर हिलाना, आँख से इशारा करना आदि, तथा आकार-शरीर की स्थूल चेष्टा, जैसे-उठने के लिए आसन की पकड़ ढीली करना, घड़ी की ओर देखना या जम्भाई लेना आदि। इन दोनों को सम्यक् प्रकार से जानने वाला-सम्प्रज्ञ । इसका 'सम्पन्न' रूपान्तर करके युक्त अर्थ भी किया गया है, जो यहाँ अधिक संगत नहीं है। यह विनीत का तीसरा लक्षण है। अविनीत दुःशील का निष्कासन एवं स्वभाव
४. जहा सुणी पूइ-कण्णी, निक्कसिज्जइ सव्वसो।
एवं दुस्सील-पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जई॥ १. देखें उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. २६ २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४४ ३. यद्वाज्ञा–सौम्य ! इदं च कुरु, इदं मा कार्षीरिति गुरुवचनमेव, तस्या निर्देश:- इदमित्थमेव करोमि, इति निश्चयाभिधानं,
तत्करः।-बृहवृत्ति, पत्र ४४ ४. 'उप-समीपे पतनं स्थानमुपपात: दृग्वचनविषयदेशावस्थानं, तत्कारकः।' -बृहवृत्ति, पत्र ४४ ५. उपपतनमुपपातः शुश्रूषाकरणमित्यर्थः। - उत्तरा. चूर्णि, पृ. २६ ६. इंगितं-निपुणमतिगम्यं प्रवृत्ति-निवृत्तिसूचकं ईषद्धूशिर:कम्पादिः,
आकार:- स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादि-भावाभिव्यंजको दिगवलोकनादिः।-बृहवृत्ति, पत्र ४४ ७. (क) सम्प्रज्ञः-सम्यक् प्रकर्षेण जानाति–इंगिताकारसम्प्रज्ञः। -बृहद्वृत्ति पत्र ४४
(ख) सम्पन्न : युक्तः, सम्पन्नवान् सम्पन्नः। -सुखबोधा० पत्र १, उत्त० चूर्णि पृ. २७