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उत्तराध्ययनसूत्र
विवेचन–बुद्धपत्त दो रूपान्तर—बुद्धपुत्र-आचार्यादि का पुत्रवत् प्रीतिपात्र शिष्य, बुद्धवुत्त(बुद्धव्युक्त)-अवगततत्त्व तीर्थंकरादि द्वारा उक्त ज्ञानादि या द्वादशांगरूप आगम। नियागट्टी दो रूपनियागार्थी-मोक्षार्थी और निजकार्थी-आत्मार्थी (निज आत्मा के सिवाय शेष सब पर हैं, इस दृष्टि से आत्मरमणार्थी), अथवा ज्ञानादित्रय का अर्थी-अभिलाषी, अथवा आगमज्ञान का अभिलाषी।२ अनुशासनरूप विनय की दशसूत्री
८. निसन्ते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अन्तिए सया।
अट्ठजुत्ताणि सिक्खेज्जा, निरट्ठाणि उ वजए॥ [८] (शिष्य) बुद्ध (-गुरु) जनों के निकट सदा प्रशान्त रहे, वाचाल न बने, (उनसे) अर्थयुक्त (पदों को) सीखे और निरर्थक बातों को छोड़ दे।
९. अणुसासिओ न कुप्पेज्जा, खंति सेवेज पण्डिए।
खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वजए॥ [९] (गुरु के द्वारा) अनुशासित होने पर पण्डित (-बुद्धिमान शिष्य) क्रोध न करे, क्षमा का सेवन करे [-शान्त रहे], क्षुद्र [-बाल या शीलहीन] व्यक्तियों के साथ संसर्ग, हास्य और क्रीड़ा से दूर रहे।
१०. मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे।
कालेण य अहिजित्ता, तओ झाएज एगगो॥ [१०] शिष्य (क्रोधावेश में आ कर कोई) चाण्डालिक कर्म (अपकर्म) न करे और न ही बहुत बोले (-बकवास करे)। अध्ययन (स्वाध्याय-) काल में अध्ययन करे तत्पश्चात् एकाकी ध्यान करे।
११. आहच्च चण्डालियं कटु, न निण्हविज कयाइ वि।
कडं 'कडे' त्ति भासेजा, अकडं 'नो कडे' त्ति य॥ [११] (आवेशवश) कोई चाण्डालिक कर्म (कुकृत्य)कर भी ले तो उसे कभी भी न छिपाए। (यदि कोई कुकृत्य)किया हो तो 'किया' और न किया हो तो नहीं किया' कहे।
विवेचन–अनुशासन के दश सूत्र-(१) गुरुजनों के समीप सदा प्रशान्त रहे, (२) वाचाल न बने, (३) निरर्थक बातें छोड़कर सार्थक पद सीखे, (४) अनुशासित होने पर क्रोध न करे, (५) क्षमा धारण करे, (६) क्षुद्रजनों के साथ सम्पर्क, हास्य एवं क्रीड़ा न करे, (७) चाण्डालिक कर्म न करे, (८) अध्ययनकाल में अध्ययन करके फिर ध्यान करे, (९) अधिक न बोले, (१०) कुकृत्य किया हो तो छिपाए नहीं, जैसा हो, वैसा गुरु से कहे।३
निसंते-निशान्त के तीन अर्थ—(१-२) अत्यन्त शान्त रहे अर्थात्-अन्तस् में क्रोध न हो. बाह्य आकृति प्रशान्त हो, (३) जिसकी चेष्टाएँ अत्यन्त शान्त हों।
१. (क) सुखबोधा, पत्र ३; बृहद्वृत्ति, पत्र ४६ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. २८, बृहवृत्ति, पत्र ४६ २. (क)सुखबोधा, पत्र ३; बृहवृत्ति, पत्र ४६ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. ३५, २८; बृहवृत्ति, पत्र ४६ ३. उत्तराध्ययनसूत्र, मूल अ०१, गा०८ से ११ तक। ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४६-४७ (ख) सुखबोधा, पत्र ३ (ग) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० २८