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प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र
त्याग कर या तो शाश्वत सिद्ध (मुक्त) होता है, अथवा अल्प कर्मरज वाला महान् ऋद्धिसम्पन्न देव होता है।
-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन—विनयी शिष्य को प्राप्त होने वाली बारह उपलब्धियाँ-(१) लोकव्यापी कीर्ति, (२) धर्माचरणकर्ताओं के लिए आधारभूत होना, (३) पूज्यवरों की प्रसन्नता, (४) विनयाचरण से परिचित पूज्यों की प्रसन्नता से प्रचुर श्रुतज्ञान-प्राप्ति, (५) शास्त्रीयज्ञान की सम्माननीयता, (६) सर्वसंशय-निवृत्ति, (७) गुरुजनों के मन को रुचिकर, (८) कर्मसम्पदा की सम्पन्नता, (९) तप:समाचारी एवं समाधि की सम्पन्नता, (१०) पंचमहाव्रत पालन से महाद्युतिमत्ता, (११) देव-गन्धर्व-मानव-पूजनीयता, (१२) देहत्याग के पश्चात् सर्वथा मुक्त अथवा अल्पकर्मा महर्द्धिक देव होना।
किच्चाणं- यहाँ कृत्य शब्द का अर्थ है-उचित अनुष्ठान (स्वधर्मोचित आचरण) करने वाला अथवा कलुषित अन्त:करणवृत्ति वाले विनायाचरण से दूर लोगों से पृथक् रहने वाला। २
आट्ठियंसुयं— दो अर्थ – (१) अर्थ अर्थात् मोक्ष जिसका प्रयोजन हो वह, तथा (२)अर्थ-अर्थ से युक्त ही जो प्रयोजनरूप हो वह अर्थिक, श्रुत-श्रुतज्ञान। पुजसत्थे– तीन रूप : तीन अर्थ -(१) पूज्यशास्त्र- जिसका शास्त्रीय ज्ञान जनता में पूज्य-सम्माननीय होता है, (२) पूज्यशास्ता- जो अपने शास्ता—गुरु को पूज्य- पूजायोग्य बना देता है, अथवा वह स्वयं पूज्य शास्ता (आचार्य या गुरु अथवा अनुशास्ता) बन जाता है, (३) पूज्यशस्त– स्वयं पूज्य एवं शस्त—प्रशंसनीय (प्रशंसास्पद) बन जाता है।३
__'मणोरुई चिट्ठइ' की व्याख्या-गुरुजनों के विनय से शास्त्रीय ज्ञान में विशारद शिष्य उनके मन में प्रीतिपात्र (रुचिकर) होकर रहता है।
कम्मसंपया— बृहद्वृत्ति के अनुसार दो अर्थ – (१) कर्मसम्पदा-दशविध समाचारी रूप कर्मक्रिया से सम्पन्न और (२) योगजविभूति से सम्पन्न ।
समाचारीसम्पन्नता का प्रशिक्षण- प्राचीनकाल में क्रिया की उपसम्पदा के लिए साधुओं की विशेष नियुक्ति पूर्वक उत्तराध्ययनसूत्र के २६वें अध्ययन में वर्णित दशविध समाचारी का प्रशिक्षण दिया जाता था और उसकी पालना कराई जाती थी।
___ योगजविभूतिसम्पन्नता की व्याख्या-चूर्णि के अनुसार अक्षीणमहानस आदि लब्धियों से युक्तता है, बृहद्वृत्ति के अनुसार — श्रमणक्रियाऽनुष्ठान के माहात्म्य से समुत्पन्न पुलाक आदि लब्धिरूप सम्पत्तियों से सम्पन्नता है।
___ 'मणोरुई चिट्ठ कम्मसंपया'—इसे एक वाक्य मान कर बृहद्वृत्ति में व्याख्या इस प्रकार की गई है— कर्मों की—ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की उदय-उदीरणारूप विभूति—कर्मसम्पदा है, इस प्रकार की कर्मसम्पदा अर्थात् कर्मों का उच्छेद करने की शक्तिमत्ता में जिसकी मनोरुचि रहती है। अथवा 'मणोरुहं चिट्ठइ कम्मसंपयं' पाठान्तर मान कर इसकी व्याख्या की गई है—विनय मनोरुचित फल-सम्पादक होने से वह मनोरुचित (मनोवांछित) कर्मसम्पदा (शुभप्रकृतिरूप-पुण्यफलरूप) का अनुभव करता रहता है।
१. उत्तराध्ययनसूत्र मूल, अ० १, गा० ४५ से ४८ तक २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६ ३. वही, पत्र ६६ ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६६ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ४४