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द्वितीय अध्ययन : परीषह-प्रविभक्ति
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तपी हुई भूमि, शिला आदि की उष्णता से तप्त मुनि द्वारा उष्णता की निन्दा न करना, छाया आदि ठंडक की इच्छा न करना, न उसकी याद करना, पंखे आदि से हवा न करना, अपने सिर को ठंडे पानी से गीला न करना; इत्यादि प्रकार से उष्णता की वेदना को समभाव से सहन करना, उष्णपरीषहजय है। राजवार्तिक के अनुसारनिर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्मकालीन सूर्य की किरणों से सूख कर पत्तों के गिर जाने से छायारहित वृक्षों से युक्त वन में स्वेच्छा से जिसका निवास है, अथवा अनशन आदि आभ्यन्तर कारणवश जिसे दाह उत्पन्न हुई है तथा दवाग्निजन्य दाह, अतिकठोर वायु (लू), और आतप के कारण जिसका गला और तालु सूख रहे हैं, उनके प्रतीकार के बहुत से उपायों को जानता हुआ भी उनकी चिन्ता नहीं करता, जिसका चित्त प्राणियों की पीड़ा के परिहार में संलग्न है, वही मुनि उष्णपरीषहजयी है।१ ।
परिदाहेण—दो प्रकार के दाह हैं—बाह्य और आन्तरिक। पसीना, मैल आदि से शरीर में होने वाला दाह बाह्य परिदाह है और पिपासाजनित दाह आन्तरिक परिदाह है। यहाँ दोनों प्रकार के 'परिदाह' गृहीत हैं।
अप्पयं—दो रूप : दो अर्थ-आत्मानं—अपने शरीर को, अथवा अल्पकं-थोड़ी-सी भी।३
दृष्टान्त–तगरा नगरी में अर्हन्मित्र आचार्य के पास दत्त नामक वणिक् अपनी पत्नी भद्रा और पुत्र अर्हन्नक के साथ प्रव्रजित हुआ। दीक्षा लेने के बाद पिता ही अर्हन्नक की सब प्रकार से सेवा करता था। वह भिक्षा के लिए भी नहीं जाता और न ही कहीं विहार करता, अतः अत्यन्त सुकुमार एवं सुखशील हो गया। दत्त मुनि के स्वर्गवास के बाद अन्य साधुओं द्वारा प्रेरित करने पर वह बालकमुनि अर्हन्नक गर्मी के दिनों में सख्त धूप में भिक्षा के लिए निकला। धूप से बचने के लिए वह बड़े-बड़े मकानों की छाया में बैठता-उठता भिक्षा के लिए जा रहा था। तभी उसके सुन्दर रूप को देख कर एक सुन्दरी ने उसे बुलाया और विविध भोगसाधनों के प्रलोभन में फंसा कर वश में कर लिया। अर्हन्नक भी उस सुन्दरी के मोह में फंस कर विषयासक्त हो गया। उसकी माता भद्रा साध्वी पुत्रमोह में पागल हो कर 'अर्हन्नक-अर्हनक' चिल्लाती हुई गली-गली में घूमने लगी। एक दिन गवाक्ष में बैठे हुए अर्हन्नक ने अपनी माता की आवाज सुनी तो वह महल से नीचे उतर कर आया, अत्यन्त श्रद्धावश माता के चरणों में गिर कर बोला—'माँ ! मैं हूँ, आपका, अर्हन्नक।' स्वस्थचित्त माता ने उसे कहा—'वत्स! तू भव्यकुलोत्पन्न है, तेरी ऐसी दशा कैसे हुई?' अर्हन्नक बोला—'माँ ! मैं चारित्रपालन नहीं कर सकता!' माता ने कहा-'तो फिर अनशन करके ऐसे असंयमी जीवन का त्याग करना अच्छा है।' अर्हन्नक ने साध्वी माता के वचनों से प्रेरित होकर तपतपाती गर्म शिला पर लेट कर पादपोपगमन अनशन कर लिया। इस प्रकार उष्णपरीषह को सम्यक् प्रकार से सहने के कारण वह समाधिमरणपूर्वक मर कर आराधक बना। (५) दंशमशक-परीषह
१०. पुट्ठो य दंस-मसएहि-समरेव महामुणी।
नागो संगाम-सीसे वा सूरो अभिहणे परं॥ १. (क) आवश्यक मलयगिरि टीका अ० २ (ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक० ९/९/७/६०९/१२ २. परिदाहेन–बहिः स्वेदमलाभ्यां वह्निना वा, अन्तश्च तृपया जनितदाहस्वरूपेण।
-बृहद्वृत्ति, पत्र ८९ ३. अप्पयं त्ति—'आत्मानमथवा अल्पमेवाल्पकम् किं पुनबहु।' -बृहवृत्ति. पत्र ८९ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ९०