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उत्तराध्ययनसूत्र
जैसे कि वाहक (अश्वशिक्षक) उत्तम अश्व को हांकता हुआ प्रसन्न रहता है। जैसे दुष्ट घोड़े को हांकता हुआ उसका वाहक खिन्न होता है, वैसे ही अबोध (अविनीत, बाल) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु खिन्न होता है।
___३८. 'खड्डुया मे चवेडा मे अक्कोसा य वहा य मे।'
__कल्लाणमणुसासन्तो पावदिट्टि त्ति मन्नई॥ [३८.] गुरु के कल्याणकारी अनुशासन को पापदृष्टि वाला शिष्य कठोर और चांटा मारने, गाली देने और प्रहार करने के समान कष्टकारक समझता है।
३९. 'पुत्तो मे भाय नाइ'त्ति साहू कल्लाण मन्नई।
पावदिट्ठी उ अप्पाणं सासं 'दासं व' मन्नई॥ [३९.] गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्व (ज्ञाति) जन की तरह आत्मीय समझ कर शिक्षा देते हैं, ऐसा विचार कर विनीत शिष्य उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानता है, किन्तु पापदृष्टि वाला कुशिष्य (हितानुशासन से) शासित होने पर भी अपने को दास के समान मानता है।
४०. न कोवए आयरियं, अप्पाणं पि न कोवए।
बुद्धोवघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए॥ [४०.] शिष्य को चाहिए कि वह न तो आचार्य को कुपित करे और न (उनके कठोर अनुशासनादि से) स्वयं कुपित हो। आचार्य (प्रबुद्ध गुरु) का उपघात करने वाला न हो और न (गुरु को खरी-खोटी सुनाने की ताक में उनका) छिद्रान्वेषी हो।
४१. आयरियं कुवियं नच्चा पत्तिएण पसायए।
विज्झवेज पंजलिउडो वएज 'न पुणो' त्ति य॥ [४१.] (अपने किसी अयोग्य व्यवहार से) आचार्य को कुपित हुआ जान कर विनीत शिष्य प्रतीति (-प्रीति-) कारक वचनों से उन्हें प्रसन्न करे; हाथ जोड़ कर उन्हें शान्त करे और कहे कि 'फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा।'
४२. धम्मज्जियं च ववहारं बुद्धेहायरियं सया।
तमायरन्तो ववहारं गरहं नाभिगच्छई॥ [४२.] जो व्यवहार धर्म से अर्जित है और प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ) आचार्यों द्वारा आचरित है, सदैव उस व्यवहार का आचरण करता हुआ कहीं भी गर्दा हो प्राप्त (निन्दित) नहीं होता।
४३. मणोगयं वक्कगयं जाणित्ताऽऽयरियस्स उ।
तं परिगिज्झ वायाए कम्मणा उववायए॥ [४३.] आचार्य के मनोगत और वाक्य (वचन)- गत भाव को जान कर शिष्य उसे (सर्वप्रथम) वाणी से ग्रहण (स्वीकार) करके, (फिर उसे) कार्यरूप से परिणत करे।