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निशीशसा : एक समीक्षात्मक अध्ययन
-उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि
भारतीय साहित्य में जैन आगम साहित्य का अपना विशिष्ट स्थान है। आगम शब्द 'आ' उपसर्ग एवं गम् धातु से निर्मित हुआ है। 'आ' का अर्थ पूर्ण और गम का अर्थ गति या प्राप्ति है। आचारांगसूत्र में आगम शब्द जानने के अर्थ में व्यवहृत हुआ है । भगवती अनुयोगद्वार और स्थानांग में प्रागम शब्द शास्त्र के अर्थ में प्रयु हुआ है । मूर्धन्य महामनीषियों ने आगम शब्द की विविध परिभाषाएँ लिखी हैं। उन सभी परिभाषानों को यहां पर उद्धृत करना सम्भव नहीं है। स्याद्वादमञ्जरी५ की टीका में आगम की परिभाषा इस प्रकार की है'आप्तवचन आगम है । उपचार से आप्तवचन-समुत्पन्न अर्थज्ञान भी पागम है।' आचार्य मलयगिरि ने लिखा है-'जिससे पदार्थों का परिपूर्णता के साथ मर्यादित ज्ञान हो वह आगम है।' रत्नाकरावतारिका वृत्ति में आगम की परिभाषा यह है-'जिससे पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो वह आगम है।'८ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने आगम की परिभाषा देते हुए लिखा है जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, वह शास्त्र आगम या श्रुतज्ञान कहलाता है।
प्रागम साहित्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी महापुरुषों के विचारों का नवनीत है। यह आगमसाहित्य अक्षरदेह से जितना विशाल और विराट है उससे भी अधिक अर्थगरिमा से मण्डित है। उसमें जहां दार्शनिक चिन्तन का प्राधान्य है, द्रव्यानुयोग का गम्भीर विश्लेषण है वहाँ उसमें श्रमणों और श्रावकों के प्राचार-विचार, व्रत-संयम, त्यागतपस्या, उपवास, प्रायश्चित्त आदि का भी विस्तार से निरूपण किया गया है। धर्म और दर्शन के गुरु-गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने हेतु कथाओं का भी समूचित उपयोग हया है। इनके अतिरिक्त आध्यात्मिक जीवन के जीते-जागते
१. (क) "आगमेत्ता प्राणवेज्जा"-आचारांगसूत्र ११५।४
(ख) “लाघवं आगममाणे"-आचारांगसूत्र ११६।३ २. भगवतीसूत्र ५।३।१९२ ३. अनुयोगद्वारसूत्र ४२ ४. स्थानांगसूत्र ३३८ ५. "आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः, उपचारादाप्तवचनं च।" -स्याद्वादमञ्जरी टीका श्लोक ३८
"पा--अभिविधिना सकलश्रतविषयव्याप्तिरूपेण, मर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणारूपया गम्यन्तेपरिच्छिद्यन्ते अर्थाः येन सः आगमः ।"
-आवश्यक (वृत्ति) मलयगिरि "पागम्यन्ते मर्यादयाऽवबुद्धयन्तेऽर्थाः अनेनेत्यागमः
-रत्नाकरावतारिकावृत्ति "सासिज्जइ जेण तयं सत्थं तं वा विवेसियं नाणं । प्रागम एव य सत्थं आगम सत्थं तु सूयनाणं ।।
-विशेषावश्यकभाष्य गा.५५९
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