Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

Previous | Next

Page 674
________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशककर्तव्यनिरूपणम् ६६१ तीर्थकरमातः ! शक्रो नाम देवेन्द्रो देवराजः भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं करिष्यमि 'तं णं तुम्माहिं ण भाइयग्वं ति कटु ओसोवणिं दलयइ' तत् तस्मात् खलु युष्माभिः न भेतव्यमिति कृत्वा अवस्वापिनी ददाति सुते मेरुं नीते सुतविरहार्ता मा दुःखभागभूदिति दिव्यनिन्द्रया निद्राणां करोतीत्यर्थः, 'दलइ ता' दखा 'तित्थयरपडिरूवग बिउव्वइ' तीर्थकर प्रतिरूपकं विकुति तीर्थकरस्य मेरुं नेतव्यस्य भगवतः प्रतिरूपकं जिनसदृशं रूपं विकुर्वतीत्यर्थः 'अस्मासु मेरुंगतेषु जन्ममहव्यापृति व्यग्रेषु आसन्नदुष्टदेवतया कुतूहलादिनाऽपहत निद्रासती मा इयं तथा भवतु इति भगवद्रपान्निविशेषणं रूपं विकुर्वन्तीति भावः 'विउवित्ता' देवराया भगवओतित्थयरस्स जम्मणमहिमं करिस्तामि, तं गं तुम्भाहिण भाइयति' तुम धन्य हो, तुम पुण्यात्मा हो, तुम कृतार्थ हो यहां तक ग्रहण करना चाहिए हे देवानुप्रिये ! मैं देवेन्द्र देवराज शक हूं-और भगवान् तीर्थकर की जन्म महिमा करने को आया हूं अतः में उनकी जन्म महीमा करूंगा आपलोग इससे भयभीत न हों ऐसा कहकर उसने माता को 'ओसोवणिं' निद्रामें 'दलयई' सुलादिया अर्थात् जब मैं इनके पुत्रको सुमेरु पर्वत पर ले जाऊंगा तो ये सुत के विरह में दुःखित हो जावेगी-इसलिये इन्हें सुतका विरह पीडित न करपावे इस अभिप्राय से माता को उसने मायामयी निद्रा से निद्रित करदिया 'दलइ ता' निद्रा से निद्रित करके 'तित्थयर पडिख्वगं विउच्वइ' फिर उसने जिन सदृश रूपकी विकुर्वणा की-अपनी विक्रियाशक्ति से जिन सशरूपवाला बालक बनाया और वह इस अभिप्राय से कि जन्मोत्सव के करने में व्यग्र बने हुए मुझे मेरु पर चले जाने पर यदि कोई आसन्नवर्ती दुष्ट देवी कुतूहलादि के वशवर्ती बनकर माताकी निद्रा दूर कर देती है तो यह पुत्र के विरह से कातर न होने पावे इस हेतु से उस शक्र ने जिनके जैसे रूपवाले एक बालक की विकुर्वणा की 'चिउ. કૃતાર્થ છે, અહી. સુધી ગ્રહણ કરે જોઈએ. હે દેવાનુપ્રિયે ! હું દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક છું અને ભગવાન તીર્થકરને જન્મ મહિમા કરવા માટે આવ્યો છું એથી હું એમને જન્મ મહિમા કરીશ. આપ સર્વે એનાથી ભયભીત થશે નહિ. આમ કહીને તેણે માતાને 'ओसोवणि' निद्रामा 'दलयइ' भन ४२ हीधी. मेटले न्यारे मना बने सुमेर પર્વત ઉપર લઈ જઈશ ત્યારે એઓ પિતાના પુત્રના વિરહમાં દુખિત થઈ જશે. એથી એમને સુતને વિરહ દુઃખિત કરે નહિ આ અભિપ્રાયથી માતાને તેણે માયામયી નિદ્રામાં नद्रित शीघi. 'दलइ ता' निद्रा मन प्रशन 'तित्थयरपडिरूवगं विउव्वह' पछी ते न સદશ રૂપની વિકુણા કરી–પિતાની વિક્રિયા શક્તિથી તેણે જિન સદશ રૂપવાળું બાળક બનાવ્યું, અને આ અભિપ્રાયથી તેણે આવું કર્યું કે જ્યારે હું જન્મોત્સવ કરવા માટે મેરૂ પર્વત પર જ રહીશ અને ત્યાં જન્મેલ્સવમાં વ્યસ્ત થઈ જઈશ અને પાછળથી કે આસન્નવર્તી દુષ્ટ દેવી કુતૂહલવશ થઈને માતાની નિદ્રાને ભંગ કરશે તે તે પુત્રના જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર

Loading...

Page Navigation
1 ... 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806