Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 729
________________ ७१६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अप्येककाः उत्पातनिपातम् तत्र उत्पातः, आकाशे उत्पतनम् निपातः, आकाशात् अवपतनम् उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् तत् तथाभूतम् एवम् 'निवय उपयं' निपातोत्पातम् निपात पूर्वउत्पातो यस्मिन् तत् तथाभूतम् 'संकुअपसारिअं' संकुचितप्रसारितहस्तपादयोः संको. चनेन संकुचितं तयोः प्रसारणेन प्रसारितम् अभिनयरहितं यत्तथाभूतम् 'जाव भंतसंभंत णाम' यावत् भ्रान्तसम्भ्रान्तकम् अत्र व्याख्यानम् अनन्तरोक्तैकत्रिशत्तमनाटके यथा व्याख्यातं तथैव बोध्यम् अत्र-यावत्पदात् 'रिआरिअं' इति ग्राह्यम् तत्र 'रिअं' गमनं रङ्गभूमेनिष्क्रमणम् 'आरिअं' पुनस्तत्रागमनमिति 'दिव्वं नट्टविहिं उपदंसतीति' दिव्यं नाटयविधिमुपदर्शयन्तीति इदं च पूर्वोक्तचतुर्विधद्वात्रिंशद्विधनाटयेभ्यो विलक्षणं सर्वाभिनयशून्यं गात्रविक्षेपमात्रं विवाहाभ्युदयादौ उपयोगिनतनम् भरतादिसङ्गोतेषु नृत्तमित्युक्तम्, यथोक्तमेव नाटयम् प्रकारद्वयेन संग्रहीतुमाह-'अप्पेगइया तंड वेति, अप्पेगइया लासेंतित्ति' अप्येककाः ताण्डवन्ति दिव्वं नट्टविहिं उवदंसन्तीति' अब सूत्रकारने यहां ऐसा प्रकट किया है कि अभि नय शून्य भी नाटक होते हैं-ये नाटक भी कितनेक देवों ने किये-इन नाटकों में उत्पात निपात-आकाश में उडना और फिर वहां से नीचे उतरना होता है इस तरह उत्पात निपात रूप खेलकूद के काम कितनेक देवों ने किये, कितनेक देवों ने पहिले नीचे गिरना और बाद में ऊपर की ओर उछलना ये काम किये कितने देवों ने अपने २ हाथपैरों को मनमाना पसारने का काम किया और फिर उनका संकोच करने का काम किया कितनेक देवों ने इधर उधर घूमना आदि रूप कार्य किया यहां यावत्पद से 'रिआरिअं' रङ्गभूमि से बाहर आना और फिर उसमें प्रवेशकरना इस रूप जो रिअ और अरिअ है उसका ग्रहण हुआ है। इस तरह से वहां उन सब देवो ने 'दिव्वं नविहिं उवदंसन्तीति' दिव्य नाट्य विधिका प्रदर्शन किया 'अप्पेगइआ तंडवेंति, अप्पेगइआ लासेंति' कितनेक । 'अप्पेगइया उप्पयनिवयं निवयउप्पयं संकुचिअपसारिरं जाव भंतसभतणामं दिव्यं नट्टविहि उवदंसन्तीति' ४३ सूत्रा मही 21 प्रमाणे २५७८ता ४२ छ, अलि નય શૂન્ય ગણુ નાટક હોય છે. એ પ્રકારના નાટકો પણ દેએ ભજવ્યાં હતા. એ નાટકેમાં ઉત્પાત નિપાત, આકાશમાં ઉડવું અને પછી ત્યાંથી નીચે ઉતરવું હોય છે. આ પ્રણાણે ઉત્પાત, નિપાત રૂપ ખેલ કૂદ નાટકે કેટલાંક દેએ. કર્યા કેટલાક દેવોએ પહેલાં નીચે પડવું અને ત્યાર બાદ ઉપરની તરફ ઉછળવું, એવા અભિયન કર્યા. કેટલાક દેએ પિતપોતાના હાથ-પગને યથેચ્છ રૂપમાં પ્રસૃત કર્યા. અને પછી તેમને સંકુચિત કરવા રૂપ અભિનય કર્યો. કેટલાક દેવેએ આમ-તેમ ફરવું વગેરે રૂપ आय ४यु. मी यावत् ५४थी 'रिआरिअं' २॥ भूमिमांथो महा२ मा भने पछी તેમાં પ્રવેશ કરવું એ રૂપમાં જે રિઅ અને અરિઆ છે તેનું ગ્રહણ થયું છે. આ પ્રમાણે त्यi मा वामे 'दिव्वं नट्टविहिं उबदंसंतीति' हिव्य नाट्य विपिनु प्रहशन यु: જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર

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