Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 738
________________ प्रकाशिका टीका-पश्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेक निगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७२५ 'तप्पढमयाए ' तत् प्रथमतया - इति ग्राह्यम् ' लूहिता' रुक्षयित्वा शरीराणि पोञ्छय ' एवं ora auroraiva अलंकिरिअविभूसियं करेइ' एवम् उक्तप्रकारेण यावत्कल्पवृक्षमिवअलंकृतं वस्त्रालङ्कारेण विभूषितम् - आभरणालङ्कारेण करोति, अत्र यावत्पदात् 'लुहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिपर अणुलिपित्ता - नासानीसासवायवोज्झं चक्खुहरं वण्णफरिसजुतं हयलाला पेलवाइरेगं धवलं कणगखचिर्यतकम्मं देवदूसजूअलं निअंसावेइ निसाविता' इति ग्राह्यम् एषामर्थः, रुक्षयित्वा तस्य शरीराणि प्रोञ्चसरसेन रससहितेन गशीर्षचन्दनेन गात्राणि शरीराणि, अनुलिम्पति, अनुलिप्य नासानिःश्वासवातवाह्यम् तथा चक्षुहरं दर्शनीयम् तथा वर्णस्पर्शयुक्तम् तथा 'हयलाला पेलवातिरेक धवलम्, तत्र हलालाअश्वमुखजलं तद्वत् पेलवम् कोमलम् अतिरेकधवलं च- अत्यन्तस्वच्छ च तथा कनकखचितान्तकर्मकनकैः काञ्चनैः खचितम् अन्तकर्म अन्तर्भागो यस्य तत्तथाभूतम् एवं भूतं देवदूष्ययुगलम् देववस्त्रयुगलम् - परिधानोत्तरीयरूपं निवासयति, परिधापयति निवास्य परिवाप्य - इति बोध्यः । 'करिता ' कृत्वा 'जाव नट्टविहिं उवदंसेइ' यावत् नाटयविधिमुषदर्शयति अत्र 'लूहे ता एवं जाव कप्परुक्खगंपिव अलंकिय विभूसिअं करेइ' शरीर को प्रोव्छन करके फिर उसने प्रभुके मुख हस्त आदि अवयवों को पोंछा यहां यावत् शब्द से 'पढमयाए' पद का ग्रहण हुआ है पोंछकर उसने फिर प्रभुको वस्त्र और अलंकारों से विभूषित किया अतः प्रभु उस समय साक्षात् कल्पवृक्ष के जैसे प्रतीत होने लगे यहां यावत् शब्द से - 'लूहिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिम्पइ, अणुर्लिपित्ता नासानीसासवायवोज्झं चक्खुहरवण्णफरिसजुतं, हयलालापेलवाइरेगधवलं कणग खचियंतकम्मं देवदू सजुअलं निअंसावेह नियंसावित्ता' ७ इस पाठका संग्रह हुआ है - इसकी व्याख्या स्पष्ट है 'करि ता जाव णट्टविहिं उवदंसेइ, उवदसिता अच्छेहिं सव्हेहिं रयणामएहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ : समणस्स पुरओ अट्ठ मंगलगे आलिहइ' वस्त्रालंकारों से प्रभुका अलंकृत कर के पक्ष्मा, सुठुभार, सुगंधित वस्त्रथी छन यु 'लूहेता एवं जाव कप्पक्खगं पिरुव अलंकिय विभूसिअं करेइ' शरीरनु प्रोच्छन पुरीने पछी तेथे प्रभुना मुख, हस्त, वगेरे अवयवो न्छन भ्यु महीं यावत् शब्दथी 'तप्पढमयाए' यह ग्रह थयुं थयुं छे પ્રાચ્છન કરીને પછી તેણે પ્રભુને વસ અને અલ'કરાથી વિભૂષિત કર્યાં. એથી પ્રભુ તે वाते साक्षात् ५ वृक्ष रेवा सागवा भांडया अडीं यावत् शब्दथी 'लूहिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिम्पइ, अणुर्लिपिता नासानीसासवायवोज्झ चक्खुहरवण्णफरिस - जुतं, हयलालापेलवाइरेगधवलं कणगखचियंत कम्मं देवदुसजु पलं नियंसावेइ निअंसावेइत्ता' या पाई संगृहीत थयो छे, थेनी व्याच्या स्पष्ट ०४ छे, 'करिता जाव णट्टविहिं वदंसेइ, अवसिता अच्छेहि सव्हेहि रयणामणहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ समणस्स पुरओ अट्ठ मंगलगे आलिहई' वस्त्रात शिथी अलुने मलङ्कृत र्या यछी तेथे यावत् नाट्यविधिनु જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર

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