Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 737
________________ ७२४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अभिषिञ्चति आनीतपवित्रोदकैरभिषेचनं करोति 'अभिसिंचित्ता' अमिपिच्य 'करयलपरिग्गहियं जाव मत्थर अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ' करतलपरिगृहीतं यावन्मस्तकेऽञ्जलि कृत्वा जयेन विजयेन च-जयविजयशब्दाभ्यां वर्द्धयति स्तौति अत्र यावत्पदात् दशनखं शिरसावर्त्तमिति ग्राह्यम् ‘वद्धावित्ता' वर्द्धयित्वा ताहिं इटाहिं जाव जयजयसदं पउंजइ' ताभिः विशिष्टगुणोपेताभिः, इष्टाभिः श्रोतृणां वल्लभाभिः यावज्जयजयशब्दं प्रयुङ्क्ते, अत्र जयशब्दस्य द्विवचं शीघ्रतायां संभ्रमे जयविजयशब्दाभ्यां वर्द्धयित्वा पुनर्जयजयशब्द. प्रयोगो मङ्गलवचनेन पुनरुक्ति र्दोषाय इत्यभिहितः, अत्र यावत्पदात् 'कंताहि पियाहिं मणुपण हि मणामाहि वग्गृहि' कान्ताभिः प्रियाभिः मनोज्ञाभिः मनोऽमाभिः वाग्भिरितिग्राह्यम् अथ अभिषेकोत्तरकालिकं कर्त्तव्यमाह 'पउंजित्ता' इत्यादि 'पउंजित्ता' प्रयुज्य 'जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेई' यावत् वक्ष्मलसुकुमारया पक्ष्मयुक्तसुन्दरलोमवत्या सुकोमलया सुरभ्या सुगन्धि युक्तया गन्धकाषायिक्या गन्धकसुगंधित द्रव्ययुक्तया इति गम्यं गात्राणि तस्य अङ्गानि मुखहस्तादि अवयवान रूक्षयति प्रोञ्छति-अत्र यावत्पदात् षेक की सामग्री से अभिषेक किया आनीत पवित्र उदक से प्रभुको स्नान कराया 'अभिसिंचित्ता करलयपरिग्गहिरं जाव मत्थए अंजलिं कह जएणं विजएणं वदावेई' स्नान कराकर फिर उसने प्रभुकी दोनों हाथों की अंजलि करके नमस्कार किया और जय विजय शब्द से उन्हें वधाया यहां यावत् पद से 'दशनखं शिरसावतम्' ऐसा पाठ संगृहीत हुआ है ‘वद्धावित्ता ताहि इटाहिं जाव जय जय सद्दे पउंजति पजित्ता जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेइ' बधाने के बाद अर्थात् जय विजय शब्दों द्वारा स्तुति कर चुकने बाद फिर उसने उन उन इष्ट यावत्-कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोऽम वचनों से जय जय शब्द का पुनः प्रयोग किया यहां पुन रुक्ति का दोष भक्ति की अतिश. यिता के कारण नहीं माना गया है जब वह इच्छानुकूल भक्ति कर चुका तब उसने प्रभुके शरीर का पक्ष्मल, सुकुमार, सुगंधित तोलियों से पोंछन किया य. मानीत पवित्र ४थी प्रभुने स्नान ४२२व्यु. 'अभिसिंचित्ता करयलपरिग्गहिअं जाव मत्थए अंजलिं कटूटु जएणं विजएणं वद्धावेई' स्नान वान ५छी तो प्रभुने भन्ने હાથની અંજલિ બનાવીને નમસ્કાર કર્યા અને જય-વિજય શબ્દો વડે તેઓશ્રીને અભિ नहित र्या. मी यावत् ५४थी 'दशनखं शिरसवतम्' मा ५8 सहीत थये। छे. 'वद्धा. वित्ता ताहिं इटाहिं जाव जय -जय सदे पति, पउंजित्ता जाव पम्हल सुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाइं लूहेइ' मलिनहित शने अर्थात् ४य-विrय शोथी तमाश्रीनी સ્તુતિ કરીને પછી તેણે તત્ત્વતતુ ઈટ યાવત કાન્ત, પ્રિય, મનેઝ, મનેડમ વચનથી જય-જ્ય શબ્દને પુનઃ પ્રયોગ કર્યો. અહીં ભક્તિની અતિશયતાને લીધે પુનરુક્તિ દેષ માનવામાં આવ્યું નથી. જ્યારે તે યથેચ્છ ભકિત કરી ચૂકે ત્યારે તેણે પ્રભુના શરીરનું જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા

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