Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 676
________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू.६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशककर्तव्यनिरूपणम् ६६३ ___ अथ यथा शक्रो विवक्षितस्थान प्राप्नोति तथा आह-'तए णं से सक्के' इत्यादि 'तएणं से सके देविंदे देवराया' ततः खलु तदनन्तरं किल सशक्रो देवेन्द्रो देवराज: 'अण्णेहिं बहुहिं भवणवइ बाणमतर जोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि सद्धिं संपरिखुडे' अन्यैर्बहुभिर्भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैदवेदेवी भिश्च साद्ध संपरिवृतः 'सव्विदीए जाव णाइएणं' सर्वद्ध र्था यावत् नादितेन अत्र यावत्पदात् 'सव्वज्जुइए' इत्यादि ग्राह्यम् 'ताए उकिटाए जाव वीईवयमाणे २' तया उत्कृष्टया यावद् व्यतिव्रजन व्यतिव्रजन् अत्र यावत्पदात् त्वरया चपलया रुद्रया देवगत्या इति ग्राह्यम्, एषां व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमसूत्रे द्रष्टव्यम् 'जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेअसिला जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव मन्दरपर्वतः यत्रैव पण्डकवनं यत्रैव अभि षेकशिला यत्रैव चाभिषेकसिंहासनं तत्रैवोपागच्छति स शक्रः 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति' सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः उपविष्टवान् स शक्रः ॥ सू०६॥ जो इन्द्र ने इस प्रकार की व्यवस्था की वह सब त्रिजगद्गुरु की परिपूर्ण सेवा प्राप्त करने की इच्छा से ही की 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया अण्णेहिं बहूहिं भवणवइवाण मंतरजोइस वेमाणिएहिं देवेहि देवीहिय सद्धिं संपरिघुडे सव्वि दीए जाव णाइए णं ताए उक्किट्ठाए जाव वीईवयमाणे जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेयसिला' इसके बाद वह देवेन्द्र देवराज शक्र अन्य अनेक भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों से तथादेवियों से युक्त हुआ अपनी समस्त ऋद्धि के अनुसार खूब गाजे बाजे नृत्यादिको के साथ २ उस अपनी उत्कृष्ट गति से चलता २ जहां पर मन्दर पर्वत था और उसमें जहां पण्डकवन था और उसमें भी जहां अभिषेक शिला थी 'जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छई' एवं जहां पर अभिषेक सिंहासन था રૂપમાં વિકર્ષિત કરીને જે ઈ આ પ્રકારની વ્યવસ્થા કરી હતી. તે ત્રિજગદ્ગુરુની परिपू सेवा प्रात ४२वानी थी । ४२री ती. 'तएणं से सक्के देविंद देवराया अण्णेहिं बहूहि भवणव इवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहि देवीहिय सद्धि संपरिवुडे सवि. द्धीए जाव णाइएणं ताए उक्किट्ठाए जाव वीईवयमाणे जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेयसिला' त्या२ माह ते हेवेन्द्र देवरा श मन्य भने भवनपति, पानव्यन्त२, તિષ્ક અને વૈમાનિક દેવોથી તેમજ દેવીઓથી યુક્ત થયેલ તે પિતાની સમસ્ત ત્રાદ્ધિ મુજબ ખૂબજ માંગલિક વાદ્ય-નૃત્યાદિક સાથે-સાથે તે પિતાની ઉત્કૃષ્ટ ગતિથી ચાલતા ચાલતે જ્યાં મન્દર પર્વત હતા અને તેમાં પણ જ્યાં પંડકવન હતું અને તેમાં ५९ न्यां मनिष शिक्षा इती. 'जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छइ' तेमा જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર

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