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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
आता । फिर भी, मैं आज उनके दर्शन करके अपने पापों को तो
धो डालूँ | वे इच्छा रहित - निस्पृह पुरुष हैं। उन्हें किसी भी वस्तु की चाहना नहीं । ऐसे पुरुष का मैं कौनसा काम करूँ ? ऐसी चिन्ता में, मुनि-दर्शनोंके लिए उत्सुक, सार्थवाह को रातका शेष रहा हुआ चौथा पहर दूसरी रातके समान मालूम हुआ ।
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सेठका आचार्य के पास जाना ।
इसके बाद जब रात बीत गई और सवेरा हो गया, तब सार्थवाह उज्ज्वल वस्त्राभूषण पहन कर अपने मुख्य आदमियों को साथ लेकर, सूरि के आश्रम की तरफ चला। वहाँ जाकर उसने ढाक के पत्तोंसे छाई हुई, छेदों वाली, निर्जीव भूमि पर बनी हुई कोंपड़ी में प्रवेश किया। उसमें उसने पापरूपी समुद्र को मथने वाले, मोक्ष के मार्ग, धर्म के मण्डप और तेज के आगारजैसे धर्म घोष मुनि को देखा । वे कषाय रूपी गुल्म में हिमवत्, कल्याण-लक्ष्मी के हार समान और संघ के अद्वैत भूषण- समान तथा मोक्ष- कामी लोगों के लिए कल्पवृक्ष के समान मालूम होते थे । वे एकत्र हुए तप, और तीर्थों को प्रवर्त्तानेवाले तीर्थङ्करों की उनके आस-पास और मुनि लोग बैठे थे । उनमें से कोई आत्मध्यान में मग्न हो रहा था, कोई मौनव्रत अवलम्बन किये हुए था, कोई कार्योत्सर्ग में लगा हुआ था, कोई आगम-शास्त्र का अध्ययन कर रहा था, कोई उपदेश दे रहा था, कोई भूमि प्रमार्जन कर रहा था, कोई
मूर्त्तिमान आगम तरह शोभित थे।