Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 3
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

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Page 1139
________________ चमरचंच प्रभिधानराजेन्छः। चमरचंचा प्रधानं वारिजलं येषु तानि धारावारिकाणि तानि च तानि बहुसमरमणिज्जस्स बदमकदेसजाए एत्य णं महं पगेपालयनानि चेति वाक्यम् । (प्रासयंति त्ति) माश्रयन्ते ईपद्ज सायवसिए पमत्ते, असाइजाई जोयणसयाई उ उपम्ते ( सयंति त्ति) श्रयन्ते अनीषद्भजन्ते। अथवा-(प्रासयंति) ईषत्स्वपन्ति ( सयंति ) अनीषत्स्वपन्ति (जहा रायप्पसेणजे तेणं,पणवीसं जोयणसयाईविक्खंभेणं, पासायवनो उति) अनेन यत्सूचितं तदिदम्-" चिति" कलस्थानेन तेषु होगनूमिवमओ अट्ठजोयणाणि मणिपेदिया चमरस्स तिष्ठन्ति “निसीयंति" उपविशन्ति (तुयटुंति ) निषमा मा- सीहासणं सपरिवारं भाणियब्वं , तस्स णं तिगिच्छकूमस्स सते 'हसंति 'परिहासं कुर्वन्ति 'रमंति ' भक्कादिना दाहिणणं उक्कोटिसएपणवायं च कोडीओ पणतीस चसरतिं कुर्वन्ति । 'ललति' इप्सितक्रियाविशेषान् कुर्वन्ति 'की. यसहस्साई पामासं च सहस्साई जोयणाई अरुणोदए ससति' कामक्रीडां कुर्वन्ति 'किटृति' अन्तर्जतकारितार्थत्वादन्यान् कीडयन्ति 'मोहयंति' मोहनं निधुवनं विदधति “पुरा मुद्दे तिरिय वीईवइत्ता अहे रयणप्पभाए पुढवीए चचापोराणाणं सुचिनाणं सुपरवंताणं सुभाणं कमाणं कम्माणं" | बीसं जोयणसहस्साई जग्गाहित्ता तत्थ णं चमरस्म असुइति, व्याख्या चास्य प्राग्बदिति । (वसहि मवेति त्ति) वासमुप- रिंदस्म असुररमो चमरचंचा नामं रायहाणी पमत्ता, एस यान्तिा "पवामेव"इत्यादि । एवमेव मनुष्याणामोपकारिकादिल. जोयणमयसहस्सं आयामविक्खंजेणं जंबूदीपप्पमाणा नपनवश्चमरस्य ३,चमरचश्चावासोन निवासस्थानं केवलं किं तु (किडारतिपत्तियं ति)क्रीमायां गतिरानन्दःक्रीडारतिः। अथवा वरियतलेणं सोमसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, पक्रीडा च रतिश्च क्रीमारती, सा ते वा प्रत्ययो निमित्तं यत्र मासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताण उयजोयणसए किंचि तत्कीमारतिप्रत्ययं , तत्रागच्छतीति शेषः । भ० १३ श० ६ विसेमणे परिक्खेवेणं , सबप्पमाणं वेमाणियस्स पमाणस्स उ.। दश० । अफ नेयध्वं । चमरचंचा-चमरचञ्चा-स्त्री० । रत्नप्रभापृथिव्याः चमरस्यासुः। "कहि गं" इत्यादि । (असुरिंदस्ससि) सुरेन्द्रस्य स रराजस्य राजधान्याम, स्था०५ ०३ १०। चेश्वर तामात्रणाऽपि स्यादित्याह-असुरराजस्य वशवय॑सुर निकायस्यत्यर्थः [ बप्पायपवर ति] तिर्यग्लोकगमनाय यकहिणं ते! चमरस्स असुरिंदस्स अमुरकुमाररमोस पागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति । " गोथूनस्स" इत्यादि । जा सुहम्मा पपत्ता गोयमा ! जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स प. तत्र गोस्तूनो लवणसमुफमध्ये पूर्वस्यां दिशि नागराजावावयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेजदीवसमुदं वीईवइत्ता | सपर्वतः, तस्य चादिमध्यान्तेषु विष्कम्भप्रमाणमिदम्-“कमअरुणवरदीवस्स वाहिरिबाओ बेइयंताओ अरुणोदयं सो विखंभो से, दसवाबीसा जोयणसवाई। सत्तसप ते. पीले, चत्तारिसए य चउवीसे"॥१॥ष विशेषमाह-"मबरं" समुदं वायानीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य एं इत्यादि । ततश्वेदमापत्रम्-" मुले दसवावीसे जोयणसए चमरस्स अमरिंदस्स असुररमो तिगिच्छकमे नामं उ- विक्खनेणं मज्के चत्तारि चउवीसे उधर सत्सतेषीसे मुले प्पायपव्यए पत्ते, सत्तरसएकवीसे जोयणसए उठं नच- तिम्नि जोयणसहस्साई दोनिय वत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचि सेणं चत्तारि तसे जोयएमए कोसं च उन्हेणं गोधूम विसेसूणे परिक्खेवेणं मज्के एगं जोयणसहस्सं तिषिण व इगुयाले जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्लेवेणं उरि दोस्स आवासपवयस्स पमाणेणं णेयवं, नवरं उवरियं प मि जोयणसहस्सा दोन्नि य ग्लसीए जोयणसप किंचि माणं मज्के नाणियन्वं, मूझे दसवारीसे जोयणसए विक्वं- विसेसाहिए परिक्खेवेणं " पुस्तकान्तरे त्वेतत्सकलमस्त्येनेणं, मज्के चत्तारि चरबीसे जोयणसए विखंनेणं, घेति । (वरवाइरविग्गहिए ति) वरबज़स्येव विग्रह प्राकृउवरि सत्ततेवीसे जोयणमए विखंनेणं, मूले तिमि | तिर्थस्य स स्वार्थिकप्रत्यये सति वरवज्रविग्रहिको मध्यकाम जोयणसहस्साई, दोएिण य वत्तीमुत्तरे जोयणसए किंचि इत्यर्थः। एतदेवाह-"महामउंदे"इत्यादि । मुकुन्दो वाद्यविशेषः। (अच्छे त्ति) स्वचः श्राकाशस्फटिकवत् , यावत्करणादिदं विसेसूणे परिक्खेवेणं, मजो एग जोयणसहस्सं नि रश्यम्-"सरहे" श्लक्ष्णः इलक्षणपुमत्तनिवृतत्वात 'लएहे'ममृणः घि य गुयाले जोयणसए किंचि विसेमूणे परिक्खेवेणं, 'घट्टे' घृष्ट श्व घृष्टः खरशाणया प्रतिमेव 'म' मृष्ट इव मृष्टः उपरि दोषि य जोणयसहस्साई दोषिय बलसीए जोय- सुकुमारशाणया प्रतिमेव प्रमार्जनिकयेव वा शोधितोऽत पव णसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं०, जाव मृले वि 'नीरए 'नीरजा रजोरहितः 'निम्मले' कग्निमलरहितः 'नि पंके' आर्डमलरहितः 'निकंकमच्चाए' निराबरणदीतिः त्थमे मज्के संखित्ते उपि विसाले मज्झे वरवइरविग्गहि 'सपने' सप्रभावः 'समिरिईए' सकिरणः । सउज्जोए ' ए महामउंदसंठाणसंविए सबरयणामए अच्छे जाव प्रत्यासन्नवस्तूद्योतकः , (पासाईए पलमबरखेड्याए वणवंमपमिरुने, सेणं एगाए पउमवरवेश्याए वणखमेण य सब-1 स्स य वएणो ति)। वेदिकावर्णको यथा-"साणं पउमवरखे. श्रो समंता संपरिक्खित्ते पउमवरवेश्याए वणखंडस्स य श्या अहंजोयणं नहुँ उश्चत्तेणं पंचधणुसया विक्संभेणं स. वरयणामइतिीगच्छगकूडउवारतापारक्खेवसमापरिक्खेवेणंबएणो -तस्स णं तिगिच्छकूडम्स नपायपव्ययस्स न. तासेणं पचमवरवेयाए इमेयासवे वरणावासे पएणते"वर्णकपिंपहबमरमाणिजे मित्नागे पएणचे, वनो-तस्स | व्यासो वर्णकविस्तरः “वरामया नेमा" इत्यादि । (नेमति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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