Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 3
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
View full book text
________________
(१३०५) चेइयवंदण अनिधानराजेन्द्रः।
चेइयवंदण. . भणियं च
वत्थाजरणा बहुं, दाउं पत्तो साणम्मि ॥ १६ ॥ भणयोवं वणथोवं, अम्गीथोवं कसायथोवं च ।
कुमरो वि तो चलिओ, पत्तो चंपा तमह वृत्ततं । न हु भे विस्ससिअव्वं, थोवं पिहु तं बहुं होइ ।। १०४।। सिरिसेणनिवो सोउं, श्य चिंतइ हरिसिओ हियर ॥१७॥ दासत्तं देइ अणं, अइरा मरणं वणो विसप्पंतो।
तम्मि कुले उष्पत्तो, सो विणो तं कलातु कोसवं । सम्बस्स दाहमग्गी, दिति कसाया भवमणंतं । १०५।। सोको वी पूण पढभा-रपगरिसो अत्थ एयरस ॥ १२८॥ सा जणइ सरियजाई, जयवं! सव्वं पि मेऽणुनूयमिणं । जेणं बीला शच्चिय, धुवं करिस्सिही राहवे हं ति। ता सिंह कुण करुणं, हा विजह होमि निस्संगा ॥१०॥ नियहियो राया, कुमरं संवर धरनुवणे ॥ १२६ ॥ भण मुणी गिहिधम्म-स्स इपिड उचिया तुम जो अत्थि। अह सजिजअ राहावे-हममवे रयणथंभसोहिल्ले । पुवकयदेवपूया-सुकयसंभूयभोगफलं ।। १०७ ॥
मंचोवरि वरसीहा-सणोववि सु निवईसु ॥ १३०॥ जओ
कुमरो असुरऽपिपयए, वरवत्थाहरणभूसियसरीरो। देवश्चणेण रज्ज, भोगा दाणेण रूवमभएणं ।
परिहारदसियम्मि, णिवसइ सीहासऐ रम्मे ॥ १३१॥ सोहग्गं सीलेणं, तवेण मणवंछिया सिझी ॥ १० ॥
इत्तो य रयणमाला, कुमरी सियसिचयसारलंकारा। साजणा तुम्ह सवं, पच्चक्खं नाह! नवरि मज्भ कहं।
सिवियारूढा पत्ता, तत्थुव विष्ठा पिउच्चंगे ।। १३२ ।। अविरयसुराण मज्ज-ट्ठया निश्चट्टि गिहिधम्मो ॥ १०६ अद सिरिसेणनिवेणं, बणिय भो भो निवा ! निवपुत्ता !। तो केवत्रिणा भणियं, नहे ! कालिंजराइ अमवीए ।
जो राहमिणं विंधर, सो कन्नाए इमाइ बरो॥१३३ ॥ सिरिरिसहनाहभवण-म्मि तुझ पूर्य रयंतीए ॥ ११०॥
आ ममवमझे सुदि-कणयथंभोवरि अहोवामा । हेगप्पहरायसुत्रो, तत्थ समागच्छिही नुवणमल्लो ।
वरकंचणपुत्तप्रिया, विया तीसेउ हिम्मि ॥ १३४ ॥ जिणनमणत्थं विहिणा, का निस्सीहियातियगं ।। १११ ॥
चउ चन चक्काईदा-दिणेण वामेण बेगनरियाई। तेण समं रज्जसुह, माणित्ता पालि च गिहिधम्मं ।
तेसिँ अहो नूमीए, तिल्लजुआ कुंमिया नविया ॥१३५ ॥ पमिवज्जिय पवज्जं, अहिही अश्राऽमरट्ठाणं ॥ ११ ॥
तत्थ पमिबियाए, पंचालीए अहो नियंतेण । अद तीए गिहिधम्मे, पमिवन्ने नमित्र केवलिस्स मप । विधेयव्वा वाम-च्छितारिया साबहाणेण ।। १३६ ॥ इच्चाए णं विहियं, विजयपयम त्ति से नामं ॥ ११३ ।। तह इह पत्ताण मए, सब्वेसिं खत्तियाण नामा। मह कुमर ! अज्ज एसा, जाव गया चेइयम्मि पूयत्थं । भुज्जेसु लिहावे, मिम्मयगोबेसु खित्ताई ॥१३७ ॥ ता कयनिसीहियतिगो, जिणनमणत्थं तुम पत्तो ॥११॥ वियाई ताइ इह सा-यकुंभकुंभम्मि संति कते । निस्सीहियं कुणतं, दट्ट इमा सूरीहिं भणियत्ति ।
अम्हं पुरोहियम्मी, गोलो किर नीहर जस्स ॥ १३८ ।। जो केवलिणा कहिओं, धुवं इमो भुवणमल्लो सो ॥११५॥ सो राहावेहम्मी, ववसायं कुण इय ववत्थ त्ति । श्रह ताहिँ वाविपमुहं, कान पवंचं तुम इहाऽऽणीओ। तत्थ पुरोहियहत्थे, अह पढमे गोलए चलिए ॥ १३६।। ता तिइ पाणीगहणे-ण कुमसु मह पत्थणं सहलं ।। ११६ ।। नामम्मि वाइए तह, अनुज्झनयरीएँ पहु जस्स अंगरुहो । कुमरो नण पमाणं, आएसो नवरि गम्मउ बलम्मि । मयरद्ध यकुमरो व-हिऊण सकरे करेह धणुं ॥ १४ ॥ नविरहियो परियणो, हेण गमिही खणं पिजओ ॥११॥ पुवमणिएण विहिणा, मुक्को वि हु अप्पडित्तु अयरम्मि । श्रारोविन विमाणे, कुमरं सिविरम्म नेह जा असुरो।
सुचरणमुणिहियए श्व, जग्गो मयरद्धयस्स सरो॥ १४१ ।। ता सहसा उज्जोअं, हटुं सचिवाइणो विति ॥ ११८ ॥ एवं राहावेहे, विहियारंजेसु खत्तिअवरेसु। जो दुं पिता तए जा, हरिओ जेण कुमरो तो खोहं। उड नुवणमल्यो, कुमरो इह अवसरे पत्ते ॥ १४ ॥ चयह बहसज्जा सा-हसस्स दइवो विन हु किं पि ॥११॥ सज्जीकयधमुगुणो, अंतरमहलहिय मुक्कप्रसमसरो। यत:
राहावेहं साहइ, गंठीभयं व भव्वजिप्रो ॥ १४३ ॥ सत्वैकतानमनसां, स्फूर्जदूर्जस्वितेजसाम् ।
जयतालादाणपरे, जणम्मि कुमरेण हतुट्ठमणो । देवोऽपि शङ्कते चैषां, कि पुनर्मानवो जनः ॥ १२०॥
तो सिरिसेनरिदो, परिणावर रयणमालं तं ।। २४४॥ इय ते जा साडोवा, हुंति सुगंति त्ति ताव अमरगिरं ।
कयसंमाणे अन्ने, नियनियगणे निवे विसजेद। सत्तप्पहाण अवितह-भिहाण जय सिरीभुवणमल्ल ।।१२१ ॥ कुमरो विकचि दिवसे, सुहेण तत्थेव वाऊण ॥ १४५ ॥ परउवयारपरायण, पुरिसेसुं तुभ दिज्जए लेहा।
सिरिसेणनिवमणुनवि-य बहुयपरिवारपणश्णीसहिश्रो! पसुमित्तस्स वि कज्जे, गणेसि पाणे तिणसमाणे ॥ १२ ॥ पत्तो नियम्मि नयरे, पिऊण पणमेइ पयपउमं ॥ १४६ ॥ इय सुणिय जायहरिसा, ते प्रोयरिय विमाणो कुमरं ।
भुनुत्तरं च सीहो, कुमरवयंसो कहे सव्वं पि। पणमांत तय असुर, देवीसहियं तु तुट्ठमणा ॥ १२३ ॥ रएणो ज जह वित्तं, ता जाव इहागनो कुमरो ।। १४७ ।। तो सो असुरो हिलो, कुमरेण विवाहए तयं धूयं ।
धम्मत्थिणा अह निवेणा-ह्रय कयाइ सव्वदंसणिणो। सप्पणयंजण तहा, वच्छे सुण मज्झ वयणमिणं ॥ १२४॥
पुट्ठा धम्म तेहि उ, कहिए चिंता इमं राया ॥ १४८ ।। निवाजा दयिते ननान्टषु नता श्वश्रूषु नम्रा नवे,
जत्थ न विसयविराओ, न संगवाओ जिपसु विणिवाओ। स्निग्धा बन्धुषु वत्सला परिजने स्मेरा सपत्नीष्वपि ।
किह हुज्ज सो विधम्मु-त्ति चिंति ते विसज्जे ॥ १४६ ॥ पत्युमित्रजने सनर्मवचना, खिन्ना च तद्वेषिषु, स्त्रीणां संवननं ननूचितमिदं चित्तौषधं भर्तृषु ॥ १२५ ॥
कहर कुमारो इच्छा, धम्म जणाउ ताय ! जइणो वि। श्रामं नि तीइ वुत्ते, असुरो सपियस्स नुवरणमल्लस्स।
ता पुच्चय मुणिणो र-क्खियंगिगयसंगजियणगा ॥१५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 1323 1324 1325 1326 1327 1328 1329 1330 1331 1332 1333 1334 1335 1336 1337 1338 1339 1340 1341 1342 1343 1344 1345 1346 1347 1348 1349 1350 1351 1352 1353 1354 1355 1356 1357 1358 1359 1360 1361 1362 1363 1364 1365 1366 1367 1368 1369 1370 1371 1372 1373 1374 1375 1376 1377 1378 1379 1380 1381 1382 1383 1384 1385 1386