Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 3
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
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(१३००) चेइयवंदण अनिधानराजेन्द्रः।
चेइयवंदण ता हसि निवो भणई, कि अप्पं करद ! गोवेसि ॥
ता सोतुमिमं सम्मं, अरिहं देवो मुसाहुणो गुरुणो। सोभण कयपयामो, पहु! कीरउ भेऽवयारणं करहो। । जिणपएणतं तत्तं, इत्थ पहाणं ति कुण मई॥३०॥ कह चिरदिछो ग्रोल-क्खिो मि नामं च सरियं मे ॥६॥
जणियं चजगाइ निवो उबयारी, वीसरसी तुम जमाप्पिया तुमए । मुत्तूण जिणं मुत्त-ण जिणमयं जिणमए बि ए मुर्नु । रम्भा दिवे विवाहे, थविय कणयपाउया मज्म ॥७॥
संसारकन्नधारं, चिंतिज्जं तं जगं सेसं ॥ ३१॥ इय संभासिय पुट्ठो, आगमणपोश्रणं निवेण इमो।
सईसणसुकिए, कायव्वा वंदणा जिणाण सया। जण पह! अस्थि सिरिसे-णनिवश्धूया रयणमाला॥5॥ तिनिसीहादसगं, तत्थ य नेयं जहा विहिणा ॥ ३२ ॥ सा कुंदरयणमाला, सुरयणमान व्व वरगुणसमेया। अह भणइ भुवणमलो, भयवं! कह मुच्चिओ ममं दटुं । जो कुण राहवहं, स मे वरो इय कयपयन्ना ॥६॥
समयणरमणिवियारे, कहं व पुरिसो वि कुण श्मो? ॥३२॥ राया तु नुवणमल्ल, श्च्छाप्त भयणिसुवरं न वरं। भण गुरू प्रह! पुरा, सीहपुरे आसि रयणसारनिवो। कुमरीगिरमवमन्न, जाणतो कुमरकोसल्लं ॥१०॥
गंग व्व सुई सुदया, तस्स पिया मयणरेह ति॥३४॥ इअ पेसिनो निव!श्हं, ता कुमरो तिच्चवेन यऽविज्ञवं । लियविनीयविरते, कइआइ निवम्मि साऽणुरत्ता वि । नियदसणामपणं, सिरिसेणनरिंदमणनयणे ॥ ११ ॥
उबंधेऊण मया, अवमाणदुई असहमाणा ।। ३५ ॥ निय नियो गणयमुहं, तो सभण पवरमज्ज जुत्तदिणं ।
जोचिता निवो धुवा कुम-रभद्दसेणी सविहबग्गा ॥ १५ ॥ अलियाववायअभिदू-मीययजीवस्स सुद्धदिययस्स । यत उक्तम्
होइ वह तस्स पुणो, चंदणरससीयलोऽगी वि ॥ ३६॥ सस्थानान्यविघ्नानि, संभवत्साधनानि च ।
देवच्चणदाणदया-सुरुभावा उ साइप्पराणा । कथयन्ति पुरः सिलिं, कारणान्येव कर्मणाम् ॥ १३ ॥
सिद्धत्थपुरे सुंदर-निवधूत्रा मूलनक्वत्ते ॥ ३७॥ मणपवणस उणपरियण-अणुकुलत्तण तोचवणमल्लो ।
अह सहसा कालगो, राया जं मे मीइ तो कुणई । चंपापुरीअनिमुह, चलिमो चउरंगबलकलिओ ॥ १४॥ सुमअमच्चो पयडिय-पुत्तत्तं रजाभिसेयं ॥ ३० ॥ सिद्धस्थपुरसमीवे, जा पसोता नरेहि तप्पहुणा ।
मरिऊण रयणसारो, जामो सि तुम हागए दिहे। बिन्नत्तो जह कीरउ, वीर!सरवणे इहावासो ॥ १५॥ पइपुवन्नवब्जासा, पई एए सरिउ नेहो ॥ ३६॥ तत्थावसित कुमारो, नियइ घणं विम्हिो समंता जा। किं मह इमम्मि पीई, एवं ति इमेह विमरिसंतीए । ता पिच्छा हयमयरह-सुहमसमूह समूहमितं ॥ १६ ॥ जाए जाईसरणे, तं जायं ज तए पुटुं ॥ ४०॥ किमियं ति कुमरपुछा, नणंति सिद्धत्थपुरनिवनरा ते।
भुत्तं संसारसुहं, नालंदश्यस्स नेहपरिणामो । न मुणेसु.परं संभा-विज्जह सिरिमूलदेवनिवो ॥ १७॥ दिठो मालबदेसो, खका मंमा य अग्घाणा ॥४१॥ ज तुम्हागमरसण-समया स मन्नई सणं पि।
भण मूत्रदेवो, मुणिवइवयणा न जायवेरम्गो । वरिसमम ति इमेजा, कहंति ता विनयह वित्ती ॥ १७ ॥ पमिवज्ज पव्वज्ज, रज्जं दाउं कुमारस्स ॥ ४२ ॥ सिद्धत्थपुरनिवो पहु!, गयउत्तिनो पहिए ति। कुमरो पुण संमत्तं, गिएहइ चिइवंदणाइनियमजुयं । तो कुमरो अस्थाइ जा, पत्तो ता स झति तहि ॥ १६ ॥
अह गुरुणा गुरुकरुणा-परेण एवं स अणसिहो॥४३॥ अश्वविजियमारं, द? कुमारं घस त्ति धराणवो।
लभंति सुरसुहा, बभंति नरिंदपवरिकीओ। मुच्चावसास पमिओ, हा हा सद्दो पुणुच्छालश्रो ॥ २०॥
न उणो सुबोहिरयणं, लगभइ मिच्छत्ततमहरणं ॥४४ ।। कुमरेण ससंभममह, चंदणसेयाश्णोक्यारेण ।
जह गहगणाण गया, प्राहारो रोहणो य रयणाणं । संलद्धचेयणो किं, वाह तुम्हं ति सो पुछो? ॥२१॥ सिंधूण जहा जलही, तह सयलगुणाण संमत्तं ॥४५॥ ओणयवयणो न दे३, उत्तर नियइ यविरदिट्ठीए ।
जह उवसमो मुणीणं, चाचविहविणयसीलमित्थीणं । कंडूअ स य कन्न, पायंगुछेन लिहइ नुवं ॥ २२॥
तह सम्मत्तं गिहिणो, जइणो वि विनूसणं परमं ॥ ४६॥ किमिय ति कुमरपुट्ठो, सिरिसेहरमंतिनंदणो सीहो।
ता मा कासि पमाय, सम्मत्ते सव्वक्वनासणए । कुमरवयं सो साह, पहु! श्हन मुणिज्जई कि पि ।
जं सम्मत्तपट्ठा-(नाणतषबिरियचरणाई॥४७॥ नवरं ओ अदूरे, गम्मिजउ देव ! जेण धरणाणी ।
इत्थं ति जणिय कुमरो, तो मन्नतो कयत्थमप्पाणं । सिरिअजयघोससूरी, समागयो अस्थि इह जो उ॥ २४॥ बहु बहुमाणं नमिलं, गुरुपयपउमं गो सिबिरं ।। ४ ।। मेरु व महियजलही, सूरो विव निहयविसमतपतरणो। सिद्धत्थपुरे गंतुं, सुमरअमचं तहिं नविय रज्जे। दोसुम्मूलपरसिओ, रवि ब्व दास व्व पबरगुण ॥ २५ ॥ चलिश्रो पुरो पत्तो, अडवि कालिंजरं जायो। ४६ ॥ सयपरिगदरहिशो, विरक्ष्यसारंगसंगहो सययं ।
खग्गानिघायभज्ज-तमत्तमायंगवियडकुंजयडा। विहियसयलक्खविजओ, एगसंसारभयभीत्रो ॥ २६ ॥ विलसिरसकुंतसरच-कवायया संगरधर व्व ।। ५०॥ तो कुमरो सो य निबो, गंतूणं तत्थ नमिय सूरिपए ।
तत्थ दसजोषणते, आवासीय जाव बरुणनश्तीरे । उविसइ उचियाणे, तो सिरि कहाश्य धम्म ॥२७॥ कुमरो नियह वणा, ता पिच्छ रिसहजिणभवणं ॥५१॥ लहिउं सुलहं पुर-भवाइसामग्गिमित्थ भवहरए ।
तो तत्थ निसीहितिगं, काउं जा पविसइ नियइ ताव । सईसणपरिजठा, मा कुहिया भमह कुम्म ब्व ॥ २७॥
जिणप्यवावडाओ, अमरीश्रो भत्तिनमिरात्रो ॥५॥ हरपरिमियत्तणा अवि, लहिज्ज ससिदसणाइ सो कुम्मो। । अह दटुं निप्पमिमं, कणगमयं रिसहसामिणो पडिमं । न उ पुण वि जत्रो बोहि, भवऽग्रतत्ता अकयसुकत्रो ॥२६॥ कुमरो वियसियवयगो, वंदिन बिहिणा थुण एवं ॥ ५३॥
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