Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 3
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

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Page 1324
________________ चेइयवंदण अनिधानराजेन्षः। चेइयवंदण विश्वत्रयैकदर्शन!, सहस्रदर्शननतक्रम ! जिनेन्!। कश्मा दहश्रासहिो , उजिते समएँ केवलि नंतुं । सवणंतपत्तदंसप!, अणंतदंसण! चिरं जयसु ॥ ५४॥ चलिमो निपमि मग्गे, जोगिभमिक मसाणते ॥ ७९ ॥ पूर्वाकृतसुकृतानां, पूर्वाशीलितविसुद्धशीलानाम् । रत्तंदणकयतिलयं, परिहियमिगन्यम्मपित्तप्तयपुष्पं । अविहियतवाण पुटिक न दोह तुह दंसणं व ॥ ५५॥ कसिणादिजोगघट्ट, मिहत्तं गरुयहुंकारं ॥८॥ भवशतकृतमपि पापं, त्वदर्शनतो विलीयते नाथ!। तस्सऽग्गे जलिरानिल-कुंड यामम्मि कन्नगं वेव । पिमाभूनं पि घयं, दुमं जहा जलिरजलणाश्रो॥५६॥ रुयमाणि रत्तंदण-मित्तं कणवीरमालिनं ॥१॥ समयोऽयमेव शस्यः, सलकणोऽसौ कणस्तदहरनधम् । तं जा खिविही नसणे, स मए ता तल्लिो अरे पाय !। पक्खो वि सो सपक्खो, जयवंधव ! दोससे जत्थ ॥ ५७ ॥ असमंजसमिश्र कार्ड, कत्धिरिह यश्चसि हयास!॥ ८२॥ कटुमदृष्टे वाञ्छा. दृष्टे त्वयि नाथ! विरहजं दुःखम् । तो सो भीत्रो कम्नं, मुत्तु नहो दया श्मे मुक्को । इय ज दुहा वि न सुह, तहा वि सुह दसणं होतु ॥ ५८ ।। पत्तो अहं पि रेवय-गिरिम्मि त बाखि नहिडं ।।३।। पूर्वार्जितसुकृतकृतं, जाविशुभनिधन्धनं हरति चैनः । तत्थ सुरिसुमकेवखि-सुणिणो कमकमममसमहं। श्य कालत्तयसुहयं, जिणाण तुह दसणं दुलहं ।। ५। पणमित्ता आसीणो, सुरणामि इय दंसणं भणहं ॥ ४ ॥ स्वामिन् ! स्वदर्शनं कुरु, तथा यथा स्यात्पुनर्न तदभावः। " कोहो अप्पीश्करो, नव्वेयकरो य सुगमिद्दलणो। जच्चधवेयणाश्रो, चक्खुक्खयवेयणा दुसहा ॥ ६ ॥ वेराऽणुबंधजणणो, जमणो वरगुणगणवणस्स ॥ ५ ॥ नामाऽपि नाथ! यस्ते, वरमन्त्रसधर्म कीर्तयति तस्य । कोहंधा निहगंति ब, पुतं मित्तं गुरुं कलतं च । मिच्छादसणदोसो, बहु नास किं परं भणिमो?॥६१॥ जणयं जणि च अप्पि, पि निग्घिरमा किच ण कुणंति ॥८६॥ य इति जिन! स्वामन्यू-नदर्शनान्यूनदर्शनं नौति । कोहऽग्गीपज्जलिओ, न केवलं महइ अप्पणो देखें। स विशुरुदर्शनः श्रय-ति सत्वरं सर्वदर्शित्वम् ।। ६२ ।। संताविश्य परं पि हु, पहवः परत्रवविणासाय ॥ ७॥ श्य थोउ चेश्य जा, सविम्हयं नियः सवप्रो कुमरो। ता कोहमहाजलणो, विज्झवियम्चो खमाजलेण सया। ता पिच्छा पच्छिमदिसि, कमलललामं च पुक्खरिणि ॥६३।। अन्नह दुसहं दुक्खं, देश जह इमी बालाप ॥ ८८" गंतुं तत्थ जलेणं, मडुरेणं सीयलेण विमलेणं। जयवं कोहबसेणं, शमी पत्तं दहं कहंति मया। गुरुवयणेण व अप्पं, सोहिय जा विस्सम सुत्थो॥ ६४ ॥ पणमिय पुट्ठोस कहे- केवली असुर! निसुणोह ॥ ॥ ता गुंजाहलहारो, सलसइसासाकरो हलिहनिहो । कयमंगलापुरीप, धसिठिसया न बालविहवासी। एगो समागो त-स्थ वानरो वानरीजुत्तो ।। ६५ ॥ जयसुंदरी ति तीसे, अत्तिजया भायरा पंच ॥१०॥ समणुयगिराइ कुमरं, पणमिय भणइ पहु! असरासरण ! । जिहस्स पुणो भज्जा, न यहए ती सह सया सम्मं । सुदय! पवमसुदक्खिण,! कुमर! मह मुणसु विसतं ॥६६॥ तं परिणावर प्रचं, कन्नं सा मच्चरितमणा ॥५॥ इह ममवीर सया वि हु, वानरसूहाहिवत्तमासी मे। तीइ कयं जं किं पी, दूसर तह हर 58वयगेहिं । एसा न बल्लहा तह, पाणेहि वि वखडा निच्च ।। ६७॥ गयनज्जा संमुहमु-त्तरं दयभामाया बि || ए२॥ तं मह जूदं एंट, वणंतरगयस्स वानरेण बला। जिणभवणमागयाओ, वि परप्परविलियभासणेण श्मा । अघहरिश्रो असणं, तं तु समत्थो विणिग्गदिउं॥ ६॥ प्रमाण बी मिसीहिय-भंगाई कुगंति विकहतए ॥१३॥ नवरं न देह महते-ण जुज्झिनेहकायरा पसा। जोअहमवि इमं न सके-मि इत्थ पगागिगि मुत्तुं ।। ६६॥ जो होश निसिद्धप्पा, निसीहिया तस्स भावभो हो। संपह तुमं महायस!, मणनयणूसवकरो सुबंधु ब्व । अनिसिहस्स निसीहिय, केवनमित्तं भव सहो ॥ए । परउवयारिकपरो, दिट्ठो पुलोदएण मए ।। ७०॥ मिहो कहाओ सव्वाश्रो, जो बज्जेश जिणालए । ता जाव अहं रिवा-नरं बहुं निहणिऊण एमि हं। तस्स निस्सिहिया होइ, इह केवलिभासियं ॥१५॥ ता नेहभीरु पसा, निरुद्दवा गन तुह पासे ।। ७१।। श्य अवसट्टामओ, परुप्परं दो विकलहमाणाश्रो। श्य ननिय तई मुत्तुं, गो श्मो चितए तो कुमरो। विज्जूप दसामो, मरिउं, जायाओं पग्घीओ ॥१६॥ कह मणुअगिरा एसो, वय पवन्न इव मईपुवं ।। ७२॥ पुवम्भासा अन्नु-नदसणा जायतिब्बरोसाओं। बलिअरिउणा पियं जा, निहयं न सुखामि ता मम वि जुत्तं । जकिय मरिवं सत्सो, पत्ताओं तश्यनरयम्मि ॥१७॥ मरणं ति भणिय कुमर-स्स वानरी पड वार्वि तो।७३ ॥ तत्तो उवट्ठिय गय-चरम्मि पुवनवविहियमुकयघसा । महु मह इमी सरणा-गयार मरणं उविक्खिउं उचिरं । भाउज्जायाजीवो, ज़ाया सिरिसूरनिवजाया ॥ १८ ॥ श्य तार ककृणत्थं, झंपावह तत्थ जा कुमरो॥ ७४॥ तीसे गब्जे धुवत्ता-३ नणंद जियो उ अप्पन्नो। तावन्न वाविन जलं, न वानरी तत्थ किंतु अप्पाणं । पर मणसंतावं, उवयं जणइ अगरुनं ॥९॥ वरमणिमयपासाए, पद्वंकगयं नियक्ष कुमरो॥ ७५ ॥ विहिपसु वि तप्पामण-हेजसपमुं न जाव सा पमिया । अह अनियंता कुमरं, निष्चा गंतु कहंति मंतीण । तो जाया पयमेउ, मय त्ति दासी छविया ।। १०० ।। ते विदु सन्निहियबला, तं कयजत्ता गवसंति ॥ ७६॥ तद्दिषसपसूयाए, तोप पुण भप्पियाएँ धूयाए । प्रायम्मनाग एगो, अह कुमरं पश् पयंपइ हं भो!। तत्थ य पालिज्जती, सा बाला वट्टिया एत्तो ॥ १०१॥ मा कि पिचितियऽनं, कारणोतं मयाऽऽसीओ ॥ ७७॥ कीलंती मिभेहि, अहऽनया जोगिएसा भोलविउं । अश्रुहमंतसाहण-हेडं नीया मसाणे सा ।। १०२ ॥ को तं किमाणिो हं, अ कुमरुत्ते नरो नगइ सुणसु । जा छिविही सा जलप्पे, ता तुमए मोइ इहाणीमा । अमिश्रगई असुरोऽहं, कीलाजवणं च मह पयं ॥ ७ ॥ इन नाउं भो अप्पा, कसाइयवो न धोवं पि ॥ १०३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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