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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
हैं ते सर्व अपनें अपनेंकूं तीर्थंकर माने हैं यातें सर्व ही महान् ठहरे हैं । बहुरि ते सर्वज्ञ हैं नांही जातैं परस्परविरुद्ध आगम कहै हैं । जो विरुद्ध न कहै तौ तिनकै मतभेद काहेकूं होइ । तातैं तीर्थकरपणां हेतु है सो काहूहीकै महानूपणांकूं साधै नही है ।
इहां मीमांसकमती बोलै है— जो याहीतैं ऐसा आया जो पुरुष तो कोई भी सर्वज्ञ महान् स्तुति करवे योग्य नांही जे कल्याणके अर्थ हैं तिनकै वेद ही कल्याणका उपदेशका साधन है ? ताकूं भी ऐसे ही कहनां - जो वेद आप ही तौ आपके अर्थकूं कहे नांही । वेदका अर्थ पुरुष ही करे है । तिनकै भी परस्पर विरोध ही देखिये हैं । तहां भट्टके सम्प्रदायी तौ वेदका वाक्यार्थ भावनाकूं माने है, प्रभाकर के सम्प्रदायी नियोगकूं वाक्यार्थ मान हैं, वेदान्तके सम्प्रदायी विधिकं वाक्यार्थ माने हैं । तिनकै परस्पर विरोध है । इनका स्वरूप विशेषकरि अष्टसहस्त्री मैं वर्णन है तथा विस्तारसूं दिखाया है तहांतें जाननां ।
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बहुरि इहां नास्तिकवादी चार्वाक तथा शून्यवादी कहै है--- जो कछू वस्तु ही सत्यार्थ नांही तब काहेका आप्त अर काहेकूं परीक्षाका विवादका प्रयास करिये ? ताकूं कहिये- - जो वस्तु नांही है ऐसा भी निश्चय कैसे करिये, तू नास्तिक तथा शून्य का कहनेवाला किछू वस्तु ही नांही तौ तेरी कही कौन मानेगा अर तू वस्तु है तौ तैसैं ही सर्व वस्तु है । ( तथा सर्व वस्तुका जाननेवाला सर्वज्ञ आप्त है । ) तहां वस्तुका स्वरूप कोऊ कैसैं मानैं हैं कोऊ कैसैं मानें हैं । तहां परीक्षा भी करी चाहिए । बहुरि परीक्षा होइ है सो प्रमाणरूप ज्ञानतैं होइ है । बहुरि प्रमाणरूप ज्ञान है सो सर्वथा सांचा ज्ञान सर्वज्ञका है सो सर्वज्ञ अदृष्ट हैं ताका निश्चय किया चाहिए । अर अल्पज्ञकै निश्चय होइ, सो अपने ज्ञानहीकै आश्रय होय सो साधक प्रमाण अर बाधकका जैसैं निश्चय