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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
तो यह भी अयुक्त है । जाते ' अवाच्य है, ऐसी उक्ति कहिये कहना सो भी न बनें। ऐसैं कहैं भी अवक्तव्यपनेका एकान्त तो न रह्या ॥५५॥
ऐसैं नित्य आदि एकान्त ठहया तातें सामर्थ्यवश अनेकान्तकी सिद्धि भई । तौऊ शून्यवादीके आशयकू नष्टकरनेकू तथा अनेकान्तके ज्ञानकी दृढताके अर्थ स्याद्वादन्यायका अनुसारकरि नित्यत्वादि अनेकान्त• आचार्य दिखावै हैं
नियं तत् प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा।
क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्धयसंचर दोषतः ॥५६॥ अर्थ-हे भगवन् ! ते, कहिये तुम जो हौ अरहंत, स्याद्वादन्यायके नायक तिनकें सर्व जीव आदिक तत्त्व हैं सो स्यात् कहिये कथंचित् नित्य ही हैं जाते प्रत्यभिज्ञायमान हैं । प्रत्यभिज्ञान प्रमाणतें पूर्व, उत्तर दशा विर्षे 'यह सो ही है जो पूर्वै देख्या था, ऐसैं एकपना सिद्ध होय है सीहो नित्य है । बहुरि यह प्रत्यभिज्ञान 'अकस्मात् , कहिये निर्विषय नाहीं । जातें जाका अविछेदकरि अनुभव है ! बहुरि क्षणिकवादी कहैं जो पूर्वोत्तरदशावि. सदृशभाव है ताकू एकत्व मानना भ्रम है । ताके अधि कहिये हैं, जो पूर्वोत्तरकालकी दोऊ दशामें अन्य अन्य हैं ऐसा अनुभव काहू प्रमाण सिद्ध होय नाहीं । तातै एकत्व प्रत्यभिज्ञान ही सत्यार्थ सिद्ध होय है । बहुरि कहैं हैं जो यह प्रत्यभिज्ञान अकस्मात् नाहीं है जानै बुद्धिके असंचारका दोष आवै है। जो या प्रत्यभिज्ञानका विषय नित्यपना न होय तो अविच्छेदरूप अनुभव न होय तब बुद्धिका संचार कैसे होय ? निरन्वयविनाश होय तब एककू छोड़ि दूसरे पै बुद्धि कैसैं जाय । जो मैं पहले देख्या था सो ही मैं वर्तमान कालमें ताहीकू देखू हूं ऐसैं एक द्रव्य बिना पूर्वोत्तर दशामें बुद्धिका संचार न होय । तातै प्रत्यभिज्ञान निर्विषय नाहीं है । तातें