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आप्त-मीमांसा।
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अर्थ-आद्यस्य कहिए कारिकामें युगपत्सर्वभासनँ ऐसा पहले कह्या है । सो केवलज्ञान आद्य लेनां तिसका भिन्न फल तौ उपेक्षा कहिए उदासीनता वीतरागता है । जातें केवलीनिकैं सर्व प्रयोजन सिद्ध भया संसार अर संसारका कारण हये था ताका अभाव भया अर मोक्षका कारण उपादेय था ताकी प्राप्ति भई। अब किछू प्रयोजन न रहा-ताते वीतरागता है । इहाँ कोई पूछे केवली वीतराग कै प्राणीनिकै हितोपदेश रूप वचन करुणां विना कैसे प्रवत्रौं है । ताकूँ कहिए तिनके घाति कर्मका नाश भया तातै मोहका विशेष जो करुणा सो तो नाहीं है । अर अंतरायके नाशतें सर्व प्रारणीनि अभयदान देनें स्वरूप आत्माका स्वभाव है सो प्रगट भया है सो ही परमदया है । सो ही मोहके अमाव” उपेक्षा है । बहुरि उपदेशका वचन है सो तीर्थकरपणानामा नाम कर्म की प्रकृतिके उदयतें विना इच्छा स्ववमेव प्रवतॆ है। तिनतें सर्व प्राणीनिक हितहोय है । बहुरि केवल ज्ञान प्रमाणका अभिन्न फल अज्ञानका अभाव है । बहुरि शेष कहिए मति आदि ज्ञानरूपप्रमाण ताका फल साक्षाततो अपनेविषय विर्षे अज्ञानका अभाव है । सो तिन” अभिन्न है बहुरि परंपरा करि हेयका त्याग उपादेयका ग्रहणका ज्ञान होना फल है तथा पूर्वा कहिये उपेक्षा भी है ते तिन” भिन्न हैं ऐसे कथंचित् फल अभिन्न कथंचित् भिन्न है । यातें एकान्तका निराकरण है ॥ १०२ ॥
आगें पूछे हैं जो प्रमाणका फल स्याद्वादनय संस्कृत कहा सो स्यात्शकास्वरूप कहा है । ऐसे पूछे आचार्य कहैं हैं ।
वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् ।
स्यानिपातोऽर्थयोगित्वात् तवकेवलिनामपि ॥ १०३ ॥ १ विशेषकः, यह पाठ सनातन जैन-ग्रंथ मालाकी वसुनंदि सैद्धान्तिक मुद्रित आप्तमीमावृत्तिमें मुरव्य है लिखित भाषा आप्तमीमांसामें तथा मुद्रित अष्टसहस्रीमें ' विशेषणं' यही पाठ मुख्य है।