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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम
अविरुद्ध है सो अन्यवादि सत् रूपही है तथा असत् रूपही है । ऐसा एकान्त कहैं हैं तो कहौ वस्तु तौ ऐसे है नाही वस्तुही अपना स्वरूप अनेकांतात्मक आप दिखावै हैं तो हम कहा करें वादी पुकारै है विरुद्ध है रे विरुद्ध है रे तौ पुकारो किछू निरर्थक पुकारनमें साध्य है नाहीं । ऐसें तत् अतत् वस्तुकूँ तत् ही है—ऐसें कहती वाणी मिथ्या है । अर मिथ्या वाक्यनिकरि तत्वार्थ की देशना युक्त नाहीं हैं । ऐसा सिद्ध किया ॥ ११० ॥ ___ आर्गे वाक्य है सो प्रतिषेध प्रधान करि ही पदार्थ कू नियम रूप करै है । ऐसा एकान्त भी श्रेष्ट नाहीं । ऐसा कहैं हैं ।
वाक्स्वभावोऽन्यवागर्थप्रतिषेधनिरंकुशः।
आह च स्वार्थसामान्यं तादृग् वाच्यं खपुष्यवत् ॥१११॥ अर्थ-बचनका यह स्वभाव है । जो अपना अर्थ सामान्यकू तो कहै है बहुरि अन्य वचनका अर्थका प्रतिषेध अवश्य करै है । तामैं निरंकुश है । बहुरि इहां बौद्धमती कहै, जो अन्य बचनका प्रतिषेध है सो ही वचनका अर्थ निरंकुश होहु स्वार्थ सामान्यतौ कहने मात्र है। किछु वस्तु नाही ताकू आचार्य कहै हैं । जो ऐसा बचन तो आकाशके फूलवतू है इहां ऐसा जाननां जो बचनके अपना सामान्य अर्थका तौ प्रतिपादन अर अन्य बचनका अर्थका निषेध सिवाय अन्य किछु कहनकू है नाही दोउमेंसूं एक न होय तौ बचन कह्या ही न कह्या समान है ताका किछू अर्थ है नाहीं। निश्चयतें सामान्यतौ विशेष विना अर विशेष सामान्य बिना कहूं दखै है नाहीं दोजही वस्तु स्वरूप है। इस सिवाय अन्यापोह कहै तौ किछू है नाही तत्वकी प्राप्ति विना केवल बचन कह करि आप तथा परकू काहै• ठिगनां ॥ १११ ॥