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आप्त-मीमांसा।
११७.
इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छता।
सम्यमिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ।।११४ ॥ अर्थ-इति कहिए ऎसें दस परिच्छेद स्वरूप यह अप्तमीमांसा सर्वज्ञ विशेषकी परीक्षा है सो हितकू इच्छते जे भव्यजीव तिनकैं सम्यक् उपदेश अर मिथ्या उपदेश तिनका विशेष सामर्थ्य असत्यार्थ ताकी प्रतिपत्ती हेय उपादेयरूप जानना । श्रद्धान करणां आचारण करणां ताके अर्थि हम रची है ऐसे आचार्यानिनें अपना अभिप्रेत प्रभोजन कह्या है । सो आर्य सत्पुरुषनिक विचारने योग्य है तहां हित तो मोक्ष तथा तिसका कारण सभ्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र जाननें । बहुरि सम्यक् उपदेशतौ मोक्षका कारण सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रका कहना है । बहुरि मिथ्या उपदेश ज्ञान ही तैं मोक्ष है इत्यादि कहैं हैं। बहुरि शास्त्रका आरंभ वि आप्तका स्तवन मोक्ष मार्गके नेता कर्मभूभृतके भेत्ता विश्वतत्वके ज्ञाता ऐसा किया ताकी यह परीक्षा करी है याही ते याका नाम आप्तमीमांसा है । और आदि अक्षरके नामसे देवागम स्तोत्र है । ऐसें जानना । आप्तकी परीक्षा की विशेष चरचा जान्या चाहो तो अष्टसहस्री तैं जानियो यहां अर्थ संक्षेप लिखा है ॥ ११४ ॥
जयति जगति क्लेशावेशप्रपंच हिमांशुमान् , विहतविषमैकान्तध्वान्त प्रमाणनयांशुमान् । यतिपतिरजो यस्या धृष्यान्मताम्बुनिधेलवान् ,
स्वमतमतयस्तीर्थ्यानानापरे समुपासते ॥ १ यह पद्य वसुनन्दिसैद्धान्तिककीवृत्तिके अन्तमें ग्रंथ समाप्तिका मंगलाचरण रूप है। परंतु पं० जयचंद्रजी छावडानें इसकी भाषा वचनिका नहीं लिखी है। शायद अष्टसहस्री कारके मतके अनुसार ग्रंथकर्ताकी कृति नहीं समझ कर पंडितजीने भाषा वचनिका करनेसे इसे छोड़ दिया हो।