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आप्त-मीमांसा |
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आगे कहें हैं जो विधि एकान्तकी ज्यों निषेध एकान्तका भी निराकरण तो विस्तार करि पहले कह ही आए बहुरि फिर भी निषेधही बचनका अर्थ कहनेवाले वादीकी आशंका दूर करें हैं;
सामान्यवाग्विशेषे चेन शब्दार्थो मृषा हि सा । अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्यलाच्छनः ॥ ११२ ॥ अर्थ – सामान्य वाणी है सो चेत् कहिए जो विशेष विषै शब्दार्थ स्वरूप नाहीं हैं । विशेषकूं न जानावै तो ऐसी वाणी मिथ्या ही है । बहुरि अभिप्रेतमें लियाजो विशेष ताकी प्राप्तिका स्यात्कार है । सो सत्यार्थ लक्षण कहिए चिन्ह है । यह चिन्ह अभिप्रायमें तिष्टते विशेष कूं जाना है । यहाँ ऐसा जाननाजो बोद्धमती अन्यापोह कहिए अन्यके निषेधमात्र वाक्यका अर्थ कहै है । सो अन्यापोह कुछ वस्तु है नाहीं । वस्तुतो सामान्य विशेषात्मक है । सो सामान्यकूं कहै तंब विशेष वक्ताके अभिप्रायमें गम्यमान है । ताकूं भी कहनेवाला सामान्य वचनही है । जातैं याकेँ स्यात् पद लागे हैं । सो अभिप्रेत विशषके जाननेका यह स्यात्कार सत्यार्थ चिन्ह है । बहुरि अभावकूं तौ कहै । अर भावकूं न कहै ऐसा वचनतौ अनुक्त समान है ॥ ११२ ॥
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आगैं हैं हैं जो ऐसा स्याद्वादका निश्चय किया तातैं स्याद्वादही सत्यार्थ है । अन्यवाद सत्यार्थ नाहीं है । ऐसे भगवान समन्तभद्रस्वामी अतिशयरूप कहैं हैं ।
विधेयमीप्सितार्थाङ्ग प्रतिषेध्याविरोधि यत् । तथैवादेयत्वमिति स्याद्वादसंस्थितिः ॥११३॥
अर्थ-यथा कहिए जैसें जो प्रतिषेध्य पदार्थ सौ अविरोधी विधेय पदार्थ है । सो यह ईप्सितार्थंग कहिए आपके बांछित अभिप्रेत पदार्थका अंगभूत है तैसें ही आदेय हयत्व कहिए ग्रहण करने योग्य अर त्याग