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अनन्तकीर्ति - ग्रन्थमालायाम
. करने योग्यपणांभी प्रतिषेध्यतें अविनाभावी है । ऐसें स्याद्वादकी सम्यक् प्रकार स्थिति है तहां अस्ति इत्यादिक तौ अभिप्रायमें लिया हुआ विधेय है । तहां जो राजाका भय चोरआदिकका भय तैं कुछ 1 विधान करै तो ताकूं विधेय न कहिए जातैं ताका करनेका अभिप्राय नाहीं । बहुरि अभिप्रायमें भी लिया अर विधान न किया सो भी विधेय न कहिये जातैं तिसमें करनेकी योग्यता ही है विधान न भया बहुरि अभिप्रायमें भी न लिया अर कहनेभी न लागा सो किछू विधेय है ही नाहीं, प्रतिषेध्य भी नाहीं तातैं उपेक्षा उदसीनता मात्रही है । बहुरि इन सिवाय अभिप्रायमें लिया अर विघान करै सो विधेय है । सो प्रतिषेध्य जे नास्तित्व आदि तिनतैं अविरुद्ध है । सोही तैसेंही वांछित पदार्थका अंग है । जातैं विधि प्रतिषेधकैं परस्पर अविनाभाव लक्षणपणा है । ऐसें विधेय प्रतिषेध्य स्वरूपके विशेषतैं स्याद्वाद प्रक्रिया जोडणी । अस्तित्व आदिविशेष है । सो अपने स्वरूप करि विधेय है प्रतिषेध्य स्वरूप करि विधेय नाहीं है — ऐसे कथंचित् विधेय है । कथंचित् अविधेय है। ऐसें प्रतिषेध्य पर लगावणां । तैसैंही जीवादि पदार्थनि पर लगावणां कथंचित् विधेय । कथंचित् प्रतिषेध्य । ऐसैं स्याद्वादका सम्यक् स्थिति युक्ति शास्त्रतैं अविरोध सधै है । अर पहलै भाव एकान्त इत्यादि विषैही विधि प्रतिषेधके विरोध अविरोधका समर्थन किया है । तातैं श्री समंतभद्रआचार्य भगवान प्रति कहैं हैं । जो हे भगवन् हमनें निर्वाध निश्चय किया है जो युक्तिशास्त्रतें अविरोधी बचन पणांतैं तुम ही निरदोष हो । अन्य नाहीं हैं तिनके वचन निर्वाध नहीं हैं ॥ ११३ ॥
अव यह अप्तमीमांसाका प्रारंभ कियाथा ताका निर्वहण अर आपके ताका फलकों आचार्य प्रकारौं हैं ।