________________
११२
अनन्तकीर्ति ग्रन्थमालायाम
कहिए उदासीनतासों सापेक्षपणा है उपेक्षा न होय । अर प्रतिपक्षी धर्मकं मुख्य करैं तो प्रमाण नयमें विशेष न ठहरे हैं प्रमाण नय दुर्न - यका ऐसाही लक्षण वर्णै है । दोउ धर्मका समान ग्रहण सो तो प्रमाण बहुरि प्रतिपक्षी धर्मतें उपेक्षा सो सुनय बहुरि प्रतिपक्षी धर्मका सर्वथा त्यागसो दुर्नय ऐसैं सर्वका उपसंहार संक्षेप समेटना जाननां ॥ १०८ ॥
आगे पूछें है जो ऐसे अनेकान्तात्मा अर्थ है तो वचन करि कैसे नियम करि कहिए जातें प्रतिनियत कहिए न्यारे न्यारे पदार्थनि विषै लोककेँ प्रवृत्ति होय ऐसें आशंका होतैं आचार्य कहें हैं । नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा ।
तथान्यथाच सोऽवश्यमविशेषत्वमन्यथा ॥ १०९ ॥
I
1
अर्थ - विध रूप तथा वारण कहिए निषेधरूप ऐसा वाक्य करि अर्थ कहिये पदार्थ सो नियम्यते कहिए नियम रूप करिये हैं । जातैं सो कहिए पदार्थ तथा कहिए तैसा अर अन्यथा करि अन्यसा ऐसा विधि निषेध रूप अवस्य हैं । बहुरि ऐसा न मानिए तो अविशेषत्व कहिए पदार्थ के विशेषण योग्यपणा न होय इहाँ ऐसा जानना जो कछू सत् रूप वस्तु है । सो सर्वही अनेकान्त स्वरूप हैं । जातै ऐसाहोय सोही अर्थ I क्रियाका करनेवाला होइ । सर्वथा एकान्त स्वरूप तो अवस्तु है । सो अर्थ क्रिया रहित है । यहतो विधि रूपवाक्य है अन्यमती भी सारे ऐसें ही एकानेक स्वरूप मानैं हैं । परन्तु सर्वथा गोण मुख्य करि एक पक्षकूँ परमार्थ मानि दूजी पक्षका लोप करि अभिप्राय विगाड़े हैं । अर मानें ऐसे हैं बोद्ध मती तौ एक संवदनेकूँ चित्राकार मानें है। नैय्यायिक ईश्वरके ज्ञानकूँ अनेकाकार मानैं हैं | साख्यामती स्वसंवेदनकूं बुद्धिमें आया पदार्थं जानने वाला माने है मीमसक भी फलज्ञानकूँ स्वसंवेदमानैं स्वरूप अर अर्थनिका जाननेवाला माने हैं चार्वाकभी प्रत्यक्ष ज्ञानकूँ
1