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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
आगैं दोऊ पक्ष का एकान्त मैं तथा अवक्तव्य एकान्त मैं दूषण दिखावें हैं।
विरोधान्नोभयकात्म्यं, स्याद्वादन्यायविद्विषां,
अवाच्यतैकांतेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥९० ॥ अर्थ-स्याद्वादन्याय के विद्वेषीनिकै दैव पौरुष दोऊ पक्ष एक स्वरूप संभवै नाहीं । जातें दोऊ पक्ष में परस्पर विरोध है । बहुरि दोऊका अवक्तव्य एकान्त पक्षभी नाही बर्षे जाते अवाच्य है । ऐसाभी कहना वक्तव्य पक्ष है सो न वणें । ताः स्याद्वादन्याय ही श्रेष्ठ है ॥ ९० ॥ आमैं पूछया जो स्याद्वादन्याय कैसें है ऐसैं पूॐ आचार्य कहैं हैं ।
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः ।
बुद्धि पूर्वविपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ ९१ ॥ अर्थः-जो पुरुषकी बुद्धिपूर्वक नैं होय तिस अपेक्षा वि तौ इष्ट अनिष्ट कार्य है सो अपने दैव ही तैं भया कहिये तहां पारुष प्रधान नाहीं दैव का ही प्रधानपणा है । बहुरि जो पुरुष की बुद्धि पूर्वक "होय तिस अपेक्षा विर्षे पौरुष तैं भया इष्टानिष्ट कार्य कहिये । तहां
दैव का गौण भाव है पौरुष ही प्रधान है। ऐसे परस्पर अपेक्षा जाननी । ऐसै कथंचित् सर्व दैवकृत है। अबुद्धि पूर्वक पणा” बहुरि कथंचित् बुद्धिपूर्वकपणारौं सर्व पौरुष कृत ही है । कथंचित् उभय, कथंचित् अवक्तव्य, कथंचित् दैवकृत अवक्तव्य, कथंचित् पौरुष कृत अवक्तब्य कथंचित् उभयकृत अवक्तव्य, ऐसें सप्तभंगी प्रक्रिया पूर्ववत् जोड़नी ॥ ९१॥