Book Title: Aapt Mimansa
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 118
________________ आप्त-मीमांसा। ९३ यहां कहै वीतराग मुनिनके सुख दुःख उपजावनेका अभिप्राय नाहीं । तातै ते न बंधै तो ऐसे करें पर वि सुख दुःख उपजावने मैं बंध होय ही है जैसा एकान्त नैं रह्या । इस हेतु तैं नाहीं भी बंधै है. ऐसा आया ॥ ९२ ॥ ___ आगें आपके दुःख करने तैं पुण्य बंधैं, आप सुख करनें तैं पाप बंधै ऐसा एकान्त मैं दूषण दिखाबें हैं । पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतारागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युज्यानिमित्ततः॥ ९३ ॥ अर्थ-आपके दुःख उपजानैं तैं तौ पुण्य बंध होय है अर आप के सुख उपजानैं तैं पाप बंध होय है । ऐसा ध्रुवं कहिये एकान्त करि मानिये तो कषाय रहित अभिप्राय रहित मुनि तथा विद्वान कहिये ज्ञानी पंडित ये भी पुण्य पाप दोऊनि करि युक्ति होय बंधै जातें इनकौं निमित्तका सद्भाव है । वीतराग मुनि कैं तो कायक्लेश आदि दुःखकी उत्पत्ति पाईए है, बहुरि ज्ञानी पंडित मैं तत्त्व ज्ञान संतोष रूप सुख. की उप्तत्ति पाइए है यह निमित्त है । बहुरि कहैं तिनकै सुख दुःख उपजाबनेका अभिप्राय नाही है तातै तिनके बंध नाहीं तौ असैं अनेकान्त सिद्धभया इस हेतुतें बंध नाहीं भी ठहया। बहुरि अकषाई भी बंधै तौ बंध तैं छूटना नाहीं ठहरै । जैसैं दोऊ ही एकान्त श्रेष्ठ नाही, प्रत्यक्ष अनुमान तैं विरोध है ॥ ९३ ॥ आगैं दोऊका एकान्त मानें तामैं दूषण दिखाऐं हैं । श्लोक । विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषां । अवाच्यतैकांतेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥ ९४ ॥

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