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दशम परिच्छेद।
दोहा । बंध होय अज्ञानतें, अल्पज्ञानतें मुक्त ।
दोऊ मिथ्यापक्षविन, नमौं स्यातपदयुक्त ॥१॥ अब यहाँ अज्ञानतें बंध ही होय है बहुरि अल्पज्ञानते ही मोक्ष होय है । जैसे दोऊ एकांतपक्ष माननेमैं दोष दिखावै हैं ___ आज्ञानाच्चे वो बंधो, ज्ञेयानंत्यानकेवली ।
ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद्बहुतोऽन्यथा ॥ ९६ ॥ अर्थ-जो अज्ञानतें बंध होय है । ऐसा एकांत पक्ष मानिये तो केवली न होय जातें ज्ञेय पदार्थ अनंत हैं। बहुरि स्तोक कहिये थोरे ज्ञानतें मोक्ष होय है ऐसा ऐकान्तपक्ष मानिये तो रहता अज्ञान बहुत है । तातें बंध ठहरै तब मोक्ष काहेरौं होय । एस दोउ एकांत पक्षों दोष आवै है इहाँ ऐसाजाननां जो सर्व पदार्थनको जाने ताकू सर्वज्ञ केवली कहिये हैं सो जेतै ऐसा न होय ते ते अज्ञान है ऐसे अज्ञानतै बंध ही हो वो करै तब बंधतैं छूटना बिना केवली कैसे होय बहुरि अल्पज्ञान होतें तौं सर्वज्ञ न होय जे तैं बहुत अज्ञान अब शेष है । तातें बंध होय यह पक्ष आवै । तातें दोऊ एकान्त पक्ष श्रेष्ठ नाहीं ॥ ९६ ॥ ___ आगैं दोऊ एकान्त पक्ष मानै तथा अवक्तव्य एकान्त मानें तामैं दोष हिखाबैं है ॥ ९६ ॥
विरोधान्नोभयैकात्म्यं, स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥ ९७ ॥