Book Title: Aapt Mimansa
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ अनन्तकीर्ति - ग्रन्थमालायाम् अर्थ — दोऊ एकान्तकूं एक स्वरूप करि एकान्त मानैं तौ दोऊ एक स्वरूप होय नाहीं, जातैं दोऊ पक्षनिमैं स्याद्वादन्याय के विद्वेषीन विरोध है तातैं कथंचित् मानना युक्त है । बहुरि अवक्तव्य एकान्त पक्ष मानैं तौ अवक्तव्य है । ऐसे कहना भी न बनैं तातैं स्याद्वाद ही युक्त है ॥ ९४ ॥ आ पूछै है स्याद्वाद विषै पुण्य पापका आश्रय कैसे बणै है ऐसे पूछें आचार्य कहैं हैं । ९४ विशुद्धिसंल्केशाङ्गचेत्, खपरस्थं सुखासुखम् । पुण्यपापाश्रव युक्तौ नचेद्वयर्थस्तवार्हतः ॥ ९५ ॥ अर्थ — आप विषै अर पर विषै तथा दोऊ विषै तिष्ठै उपजावै उपजै जो सुख दुःख सो जो विशुद्धि और संक्लेशका अंग होय तौ पुण्य अर पापका आस्रव युक्त होय । बहुरि जो हे भगवन् ? विशुद्धि संक्लेशका अंग नैं होय तौ तुम जो अरहंत तिनके मतमें व्यर्थ कया है । तिनतैं बंध नाहीं होय है, तहां विशुद्धतौ मंद कषाय रूप परिणामकूं कहिये है। बहुरि संक्लेश तीव्र कषाय रूप परिणामकूं कहिये है | तहां विशुद्धिका कारण विशुद्धिका कार्य्य विशुद्धिका स्वभाव ये तौ विशुद्धिके अंग हैं । बहुरि संक्लेशके कारण संक्लेशके कार्य्य मैं संक्लेशका स्वभाव ये संक्लेशके अंग हैं । बहुरि विशुद्धिके अंगतै तौ पुण्यका आस्रव होय है । बहुरि संक्लेशके अंगतैं पापका आस्रव होय है । तहां आर्त ध्यान रौद्र ध्यान परिणाम तौ संक्लेश स्वभाव है । वहुरि आ रौद्र ध्यानका अभाव आत्माका आप विषै तिष्ठना सो विशुद्धि स्वभाव है बहुरि आर्च रौद्र ध्यानके कार्य्य हिंसादिक क्रियाहैं. तेभी संक्लेशका अंग है । बहुरि मिथ्या दर्शन, अविरत, प्रमाद, कषाय, योग ये आर्त्त रौद्र ध्यानके कारण हैं तेभी संक्लेशके अंग हैं । बहुरि आर्त रौद्र ध्यानका अभाव सो

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144