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नवम परिच्छेद।
दोहा । पुण्य पापके बंध कू, स्यादवादतै साधि । कियौ यथारथ जैनमुनि नमौं नितहि तजि आधि॥१॥ अब इहां पूर्वपरिच्छेदमें दैव कह्या सो दैव इष्ट आनिष्टकार्यका साधन प्राणीनिकैं दोय प्रकार कया है । एक पुण्य दूजा पाप तहां साता वेदनीय, शुभआयु, शुभनाम, शुभगोत्र, ऐसें च्यार तौ पुण्य कर्मकहे हैं । बहुरि इन” अन्यकर्म प्रकृति हैं ते पाप कर्म कहे हैं तिनका भेद तौ सिद्धान्ततें जानना । अब इहां कहैं हैं जो इनका आश्रव वंध कैसे होय है । तहां कोऊ ऐसा एकान्त पक्ष मानै जो परकू दुःख देनेमें तो पाप है अर पर कू सुखी करनेमें पुण्यं है । ऐसैं एकान्त पक्षमैं दूषण दिखाऐं हैं ।
पापं ध्र परे दुखात् पुण्यं च सुखतो यदि।
अचेतना कषायौ च वध्येयातां निमित्ततः ॥ ९२ ॥ अर्थ-पर विर्षे दुःख करनै तौ ध्रुवं कहिये एकांत करि पाप बंध होय है । बहुरि पर विर्षे सुख करनै” एकान्त करि पुण्य बंध होय है । जो ऐसा एकान्त पक्ष मानिये तो अचेतन जे तृण कंटकादिक दुःख करनेवाले बहुरि दूध आदि सुख करने वाले अर अकषाय जो कोप रहित वीतराग मुनि आदि ते भी पुण्य पाप करि बंधै जाते पर विौं सुख दुःख उपजना निमित्तका सद्भाव पाइए है । इहां कहै जो चेतन ही बंध योग्य है तौ वीतराग मुनि चेतन हैं ते भी बंधैं । फेर