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आप्त-मीमांसा ।
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जो द्रव्यादि संसार है कारण जादूं ऐसा कामादि प्रभव रूप भाव संसारकै कर्म बंधकै अनुरूप पणां हो तैं जीविनकै शुद्धि अशुद्विका विचित्र पणांतें युक्ति होना न होना है ॥ १०० ॥ ___ आगै मानूं भगवान पूछा जो हे समंतभद्र । सर्वज्ञ पणां आदिक उपेय तत्व बहुरि ताके उपाय तत्व जो ज्ञायक कहिये जनावनेवाला हेतुवाद अहेतुवाद अर कारकतत्व दैव पौरुष इनका अधिगमन कहिये जानना समस्त पणें तो प्रमाण करि अर एक देशपणे नयन करि करणां कह्या है। जारौं प्रमाण नयविना अन्य प्रकार इनका जानना न होय है यह नियम कह्या है । तातै प्रथमही प्रमाणकू कहै ना जातैं याके स्वरूप संख्या विषय फल इन चारनिके वि विप्रतिपत्ती है। -अन्यवादी अनेक प्रकार इनकू कहै अन्यथा माने है । तिनका निराकरण विना प्रमाणका निश्चय न होय । ऐसें पूछे मानूं आचार्य कहें हैं।
तत्वज्ञानं प्रमाणं ते, युगपत्सर्वभासनम् ।
क्रमभावि च यज्ज्ञानं, स्याद्वादनयसंस्कृतम्॥१०१॥ अर्थ-हे भगवन् ते कहिये तुमारे मतमें तत्व ज्ञान है सो प्रमाण है । यह तौ प्रमाणका स्वरूप कहा। कैसा है तुम्हारा तत्वज्ञान युगपत् सर्वभासनं कहिये एकै काल सर्वपदार्थनिका है प्रतिभासन जामैं ऐसा केवलज्ञान है बहुरि जो ज्ञान क्रम भावी है सो भी प्रमाण है जातें यहभी तत्व ज्ञान है । ऐसा मति श्रुति अवधि मनःपर्यय ये चार ज्ञान है । बहुरि केसा हेतु होय तातें स्याद्वाद नय कारे संस्कृत है । जो सर्वथा एकांत कहिए तौ वाधा सहित होय । तातै स्याद्वाद” सिद्धकिया निर्वाध है । ऐसे युगपत सर्वभासन अर क्रमभावी कहनेमें प्रत्यक्ष परोक्ष रूप संख्या कही । बहुरि सर्वभासन अर क्रमरूप भासन ऐसें कहनेते विषय जनाया । ऐसें कारिका का अर्थ प्रमाण