________________
+
अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
सामान्यविशेषरूप ऐसें ही सिद्ध होय है, ऐसें जनावै है । बहुरि युगपत् उत्पाद, व्यय, धौव्य तीनूं कह्या सो प्रमाणका विषय है सत्का लक्षण ऐसाही सिद्ध होय है ॥ ५७ ॥
६२
आ अन्य वादी कहैं हैं जो सतका लक्षण त्रयात्मक किया सो कै तो सत् नित्य ही बने या उपजना, विनशनारूप अनित्य ही बने | नित्यानित्यमैं तो विरोध है । तातैं जो उत्पाद अर व्ययरूप होय है सो पूर्वै याका किछू सत् नाहीं हैं नवीन ही उपजै है एैसैं कहना । जो नित्यतैं पूर्व होय ताका तो नाश कैसैं हाय ? । अर पूर्व अनित्य ही था तो कार्य उपजा या विनाश गया ताके नवीन भये कार्य मैं सत् कैसें कहिये ? | ऐसें तर्क करै ताकूं आचार्य कहैं हैं जो कार्यका उत्पत्तिके पहले तो भावस्वभाव ही है । सो जैसैं है तैसैं दिखावैं हैंकार्योत्पादः क्षयो हेतुर्नियमाल्लक्षणात्पृथक् ।
न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥ ५८ ॥ अर्थ – हेतु कहिये उपादान कारण ताका क्षय कहिये विनाश है सोही कार्यका उत्पाद है । जातैं हेतुके नियम कार्यका उपजना है । जो कार्यतैं सर्वथा अन्य है ताकेँ नियम नाहीं है । बहुरि ते उत्पाद, अविनाश भिन्नलक्षणतै न्यारे न्यारे हैं - कथंचित् भेदरूप हैं । बहुरि जाति आदिके अवस्थानतैं भिन्न नाहीं हैं - कथंचित् अभेदरूप हैं । बहुरि परस्पर अपेक्षा रहित होय तो अवस्तु है- आकाशके फूलतुल्य है । यहां, जैसैं कपालका उत्पाद अर घटका विनाशकै हेतुका नियम है । तातैं हेतुके नियम कार्यका उत्पाद है सो ही पूर्व आकारका विनाश है । अर दोऊ लक्षणभेद है ही । उत्पादका स्वरूप अन्य अर विनाशका स्वरूप अन्य ऐसैं लक्षणभेदतैं भेद है ही । बहुरि सर्वथा भेद ही नाहीं है । जैसैं कपालका उत्पाद अर घटका विनाश ये दोऊ मृतिकास्वरूप