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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम
अंग कर्ता-कर्म आदि हैं तथा ज्ञायक के अंग ज्ञेय ज्ञायक है तैसें कर्ता बिना कर्म नाहीं अर कर्म बिना कर्ता नाहीं । ऐसें अपेक्षा 'सिद्ध है । बहुरि कर्ता का करनेवालापणां स्वरूप है सो पहलैं आप आप सिद्ध है ही तैसे ही कर्म आप आप सिद्ध है स्वरूप मैं अपेक्षा सिद्ध पणां है नाहीं ऐसे ही सामन्य विशेष गुण गुणी कार्य कारण प्रमाण प्रमेय इत्यादि जानना। कथंचित् आपेक्षक सिद्ध है कथंचित् अनापेक्षक सिद्ध है कथंचित् दोऊ करि सिद्ध है कथंचित् अवक्तव्य है कथंचित् आपेक्षिक अवक्तव्य है. कथंचित् अनापेक्षिक अवक्तव्य है कथंचित् दोऊ हैं अर अवक्तव्य है। दोऊ के अविनाभाव अर निज स्वरूप हेतु लगावणा । ऐसें सप्तभंगी प्रक्रिया पूर्वोक्त प्रकार लगावणी ॥ ७५॥
चौपाई। आपेक्षिक आदिक एकांत । मिथ्या विषवत् कह्यो सिद्धांत जैन मुनिनके वचन जु मंत्र, सुनें जहर उतन्यै वह तंत्र ॥१॥ इति श्री स्वामी समंत भद्र विरचित आप्त मीमांसा नाम देवागम स्त्रोत्र की संक्षेप अर्थ रूप देश भाया मय बचनिका विर्षे
पांचवां परिच्छेद समाप्त भया. ॥५॥ यहां ताई कारिका पिचेहत्तर भई । आगें छढा परिच्छेद का प्रारंभ
दोहा। हेतु अहेतु विचारिक पक्षपात परिहार ।
आगम बरतायौ मुनीनमौशीश करधार. ॥१॥ अब यहां प्रथम हेतु अर आगम का एकांतपक्षविर्षे दूषणभी दिखाऐं हैं।
सिद्धिं चेद्धेतुतःसर्व न प्रत्यक्षादितो गतिः। सिद्धं चेदागमात्सर्व विरुद्धार्थमतान्यपि ॥ ७६ ॥